मुख्यमंत्री हेमंत सोरेन ने चालू वित्तीय वर्ष में झारखंड में जाति सर्वेक्षण सहित जनगणना कराने का फैसला लिया है. विकास योजनाओं के लिए और आरक्षण का लाभ सभी वर्गों को सही अनुपात में मिलने की दृष्टि से यह एक आवश्यक कदम होगा. लेकिन मेरी चिंता का विषय यह है कि जाति गणना में आदिवासी समुदाय का समायोजन किस तरह से किया जायेगा, क्योंकि आदिवासी समाज शास्त्र में जाति का प्रश्न बेहद दुरूह है. क्यों, आईये समझते हैं.
जाति का मूलाधार वर्णाश्रम है. जाति की अवधारणा वहीं से आयी है, जबकि आदिवासी समुदाय में जाति की अवधारणा है ही नहीं. मुंडा, हो, उरांव, संथाल, खड़िया आदि आदिवासी समूह के अलग-अलग समुदाय हैं. परंपरागत रूप में उन्हें जाति की संज्ञा नहीं दी जा सकती. मनुवादी वर्ण व्यवस्था में इसलिए आदिवासी समाहित नहीं किये जा सकते. उन्हें ब्राह्मण, क्षत्रिय, वैश्य या शूद्र कह कर वर्गीकृत नहीं किया जा सकता. यही तो आदिवासी और हिंदू वर्ण व्यवस्था से परिचालित हिंदूओं में सबसे प्रमुख अंतर है.
ऐसा इसलिए है कि वर्ण व्यवस्था के मूल में है श्रम विभाजन. समाज उपयोगी कार्यो की अलग अलग श्रेणियां हैं और हर श्रेणी के लिए एक अलग किसम का काम सुनिश्चित कर दिया गया है. मसलन, ब्राह्मण पठन-पाठन वा पुरोहितयी का काम करेंगे. क्षत्रिय अस्त्र शस्त्र चलायेंगे. वैश्य व्यापार करेंगे और शूद्र हर तरह का वह काम जो हाथों से किया जाता है, जैसे, खेती का काम, चमड़े का काम, बर्तन आदि बनाने का काम, कपड़ा बनाने का काम, हर तरह की सफाई आदि का काम.
समय के साथ सिथति बदल रही है, लेकिन इतिहास के एक बड़े दौर में इस वर्गीकरण के खिलाफ जाने वाले लोगों के लिए कड़ी सजा का प्रावधान था. दलित हथियार उठाये या रखे अथवा वेद पुराण पढ़े, इसके लिए कठोर सजा का प्रावधान किया गया था. एकलव्य और शंबूक बध को इसी आईने में देखा जा सकता है. भारतीय संविधान के अस्तित्व में आने के बाद कानून की नजर में सभी नागरिक बराबर हैं और कोई भी पेशा अपनाने के लिए स्वतंत्र हैं, लेकिन अभी भी वर्ण व्यवस्था की जकड़न वर्तमान है. इसलिए वहां जातियां हैं.
लेकिन आदिवासी समाज न तो आर्थिक आधार पर विभाजित या श्रेणीबद्ध रहा है और न वहां इस तरह का कोई श्रम विभाजन ही है. पाहन पुजारी वहां भी है, लेकिन उन्हें अपनी खेती खुद करनी है. अपने लिए अनाज खुद पैदा करना है. तीर-धनुष पर सब का समान अधिकार है. सभी शिकार कर सकते हैं. और अखड़ा में सभी मांदर गले में लटका कर नाच गा सकते हैं. वहां अपने तरह की सामूहिकता है. हां, यह हुआ है कि समय और जरूरत के हिसाब से कुछ काम विशेष के लिए गांव में अन्य लोगों को बसा लिया जाता है. हल, फाल बनाने के लिए लोहार, मिट्टी के बर्तन आदि बनाने के लिए कुम्हार आदि. इस काम के एवज में उन्हें गांव में बसने और खेती के लिए जमीन दिया जाता था.
इसलिए आदिवासी विभिन्न समुदायों में तो बंटे हैं, लेकिन उनमें जाति नहीं और न जाति व्यवस्था ही कभी रही. कुछ लोगों का मानना है कि जनजाति के रूप में आदिवासियों की गिनती होती है. वहां गड़बड़ झाला यह है कि विभिन्न राज्यों में जनजाति सूचि बनाने की जिम्मेदारी राज्य सरकार की है. और राजनीतिक दबाव से भी जनजाति समूह में ऐसे जातियों को शामिल कर दिया जाता है जो आदिवासी नहीं.
वैसी, स्थिति में जाति सर्वेक्षण में इस समस्या का समाधान किस रूप में होगा, यह देखना दिलचस्प होगा. विभिन्न आदिवासी समूहो/समुदायों- संथाल, मुंडा, उरांव, हो, खड़िया आदि को किस जाति के रूप में चिन्हित करती है ‘अबुआ सरकार’!