वरिष्ठ समाजवादी कार्यकर्ता और जलगांव से एम. जे. कॉलेज के सेवानिवृत्त प्रोफेसर शेखर सोनालकर का 4 अगस्त 2023 को 72 वर्ष की आयु में निधन हो गया. सत्तर के दशक में जयप्रकाश नारायण के आंदोलन में शामिल रहे सोनालकर को आपातकाल के दौरान जेल में डाल दिया गया था.

जयप्रकाश नारायण ने सोनालकर को ‘छात्र युवा संघर्ष वाहिनी’ के महाराष्ट्र राज्य का पहला संयोजक नियुक्त किया, एस एम जोशी की सिफारिश पर. वह अपनी पत्नी वसंती दिघे के साथ चालीस से अधिक वर्षों तक महाराष्ट्र में विभिन्न सामाजिक- राजनीतिक आंदोलनों में सक्रिय रूप से शामिल रहे.

शेखर सोनालकर का नाम एक ऐसी शख्सियत के तौर पर आंखों के सामने आता है, जिन्होंने न सिर्फ महाराष्ट्र बल्कि देश के सामाजिक और राजनीतिक आंदोलनों पर भी अपनी छाप छोड़ी है. शेखर जीवन भर पुणे-मुंबई के बाहर ग्रामीण महाराष्ट्र में इन आंदोलनों के वैचारिक नेता रहे. उन्होंने कई कार्यकर्ता तैयार किये. वे महाराष्ट्र के लगभग सभी समतावादी आंदोलनों के संपर्क में बने रहते थे.

मैं उनके संपर्क में तब आयी, जब मैंने घर छोड़ दिया और आंदोलन में शामिल हो गयी. मैं सबसे पहले छात्र युवा संघर्ष वाहिनी के जलगांव कार्यालय गयी. यह दफ्तर शेखर सोनालकर के मकान के एक कमरे में था. पहले कुछ दिन मैं उनके घर पर रुकी. घर पर उनकी मां कुसुम ताई सोनालकर और शेखर ही थे. लेकिन दिन भर कार्यकर्ताओं की भीड़ लगी रहती थी. उनके काम से कई युवा लड़के-लड़कियां प्रभावित हुए और उनसे जुड़े. उनके काम करने का तरीका कभी ये नहीं था कि मैं नेता हूं और तुम अनुयायी हो. इसलिए हम लोग जो उनसे छोटे थे, उन्हें ‘शेखर’ कहते थे. दूसरा ये कि आप बिना किसी डर या संकोच के उनसे अपने मतभेदों पर चर्चा कर सकते थे. एक ओर वे अन्याय के विरुद्ध सजग और आक्रामक थे, तो दूसरी ओर उनका व्यक्तित्व प्रेमपूर्ण था. उन्होंने अपने आस-पास एकत्रित हम जैसे लोगों का जीवन बदल दिया.

खास बात यह कि उन्होंने वैचारिक चर्चा चले, यह सुनिश्चित किया. राजनीतिक और सामाजिक विश्लेषण की आदत बनाई, वह भी ‘स्थानीय से वैश्विक’ स्तर तक. वसंती दिघे, रत्ना रोकड़े, अरुणा तिवारी और जलगांव शहर और आसपास के तालुका के युवा- रमेश बोरोले, शैला सावंत, कुंजबिहारी, नितिन तलेले, राजेंद्र मानव, हमीद शेख, दिलीप सुरवाडे, कुर्हे गांव के हेमराज बारी, विकास, सुधाकर बडगुजर, उषा पाटिल, पचोरा के खलील देशमुख जैसे कई अन्य लोगों को जोड़ा. वे उन सभी के अनौपचारिक अभिभावक थे. और हमारे माता-पिता और परिवार को भी इस पर कोई आपत्ति नहीं थी. सभी समुदायों में उनका हमेशा बहुत आदर रहा. वसंती दिघे और शेखर सोनालकर ने शादी कर ली, जिसके बाद वे विशुद्ध रूप से सक्रिय परिवार बन गए. वासंती दिघे ने लगभग पूरा समय आंदोलन को समर्पित किया और एक-दूसरे को कार्यकर्ता के रूप में समझा. उनका घर आज भी कार्यकर्ताओं के लिए हमेशा खुला रहता है.

उन्हें याद करते हुए मैं उनकी कार्यशैली का जिक्र करना जरूरी समझती हूं.. एक तरफ वे एक आंदोलनकारी के रूप में युवाओं की वैचारिक बैठक आयोजित करते थे, तो दूसरी तरफ वे हमें कार्यक्रम भी देते थे. शिविर और आंदोलन होते रहते थे, लेकिन जब भी जलगांव जिले में सांप्रदायिक दंगे हुए, उन्होंने वाहिनी के सदस्यों के अध्ययन समूह बनाए और उन्हें उन स्थानों पर भेजा. वे खुद भी साथ रहते थे.

वह हर बस्ती में जाकर दंगों के दौरान फैलाई जा रही अफवाहों के झूठ को उजागर करते थे. दंगों को फैलने से रोकने के लिए यह उनकी विशेष शैली, कार्रवाई होती थी.

वह एक ऐसा व्यक्ति था, जो खुली छाती के साथ शांति के लिए सड़क पर चल सकता था. हिन्दू, मुस्लिम और अन्य सभी समुदायों के लोग उनके प्रति सम्मान और आस्था रखते थे. उन्होंने महाराष्ट्र में समतावादी आंदोलन में कई संगठनों के साथ काम किया. वरिष्ठ सामाजिक नेता डाॅ. बाबा आढव के ‘एक गांव एक पनघट’ आन्दोलन में सक्रिय थे और मराठवाड़ा विश्वविद्यालय के नामांतर आंदोलन में भी भाग लिया था. उन्होंने ‘समाजिक कृतज्ञता निधि’ के लिए भी काम किया. उन्होंने ‘फॉरेंसिक ऑडिट’ के माध्यम से वित्तीय अपराधों और अपराधियों के मामलों की जांच के माध्यम से अपराधियों को सामने लाने में पुलिस की मदद करके सरकार द्वारा उन्हें सौंपी गई जिम्मेदारी को पूरा किया. बेशक, इससे उसके कुछ दुश्मन बन गए. उन्होंने सोनालकर को फंसाने की कोशिश की. मगर उनके साफ-सुथरे और बेदाग चरित्र और पेश किए गए सबूतों ने उन पर आरोप लगने वालों को बेनकाब कर दिया.

शेखर सोनालकर गांधीजी और जयप्रकाश नारायण के विचारों से प्रभावित थे. वे स्वतंत्र रूप से आंदोलनों के साथ चलते हुए इस वैचारिक विरासत को विकसित करते रहे. आपातकाल के समय वह एक राजनीतिक दल में भी शामिल हुए, लेकिन सत्ता का लाभ लेने के लिए नहीं, बल्कि तानाशाही और फासीवाद के खिलाफ लोकतंत्र और समानता के मूल्यों के लिए.

शिरपुर-शिंदखेड़ा क्षेत्र में संघर्ष वाहिनी द्वारा संचालित वन भूमि के लिए आदिवासियों के संघर्ष के बारे में जागरूकता पैदा करने के लिए शेखर ने कई लेख लिखे और बताया कि यह संघर्ष न्याय के लिए है. वे राष्ट्रीय स्तर पर भी सक्रिय रहे. उन्होंने जलगांव और महाराष्ट्र के कई अन्य स्थानों पर ‘छात्र-युवा संघर्ष वाहिनी’ की स्थापना की. बिहार के बोधगया मठ की अवैध जमीन की मुक्ति के लिए संघर्ष वाहिनी के नेतृत्व में चले सफल आंदोलन में भी सक्रिय रहे. महाराष्ट्र में सिनेमा प्रतिबंध के खिलाफ लड़ाई में हमें उनका पूरा सहयोग और समर्थन मिला और यह सत्याग्रह सफल भी रहा.

ये तो जमीनी स्तर के काम थे, इसके साथ ही उन्होंने देश में उठने वाले और परेशान करने वाले कई मुद्दों पर विद्वत्तापूर्ण लेखन किया. कार्यकर्ताओं को तैयार और जागरूक करने के लिए लगातार बैठकें और चर्चाएं करते थे, ताकि समाज को इन मुद्दों के पीछे की राजनीति का पता चले. उनका सूत्रीकरण इतना तार्किक था कि विरोधियों के लिए उसे खारिज करना असंभव हो जाता थाय और इतने निर्भीक कि विरोधी भी भयभीत हो जाते थे. उन्होंने हमें बार-बार बताया, अपने आचरण से दिखाया कि सत्य की शक्ति क्या हो सकती है.

शेखर सोनालकर के पिता डॉ. मधुकर शांताराम सोनालकर महात्मा गाँधी के आन्दोलन के सक्रिय सत्याग्रही थे. उन्होंने ने ‘नमक सत्याग्रह’ में भी भाग लिया था. उस समय उन्हें पुलिस की भयंकर पिटाई का सामना करना पड़ा था और कारावास भी सहना पड़ा था. लेकिन वो अपने निश्चय और गांधी विचार से विचलित नहीं हुए. सविनय अवज्ञा आन्दोलन में भी वो सहभागी रहे थे. देश के स्वतंत्र होने की खुशी में उन्होंने अस्पृश्य, मेहतर और चर्मकार समाज के लोगों को बुलाकर चांदी की थाली में रंगोली बना कर समारोह के साथ उन्हें भोजन कराया था. शेखर सोनालकर की मां कुसुम ताई सोनालकर ने भी इन्हीं विचारों को आगे भी जारी रखा. जीवन भर धर्मनिरपेक्षता का अनुसरण किया और शेखर सोनालकर के सामाजिक संघर्ष में हमेशा समर्थन दिया. मैं उनके यहाँ जब रही, उस समय मुस्लिम परिवार की एक लड़की हिंदू परिवार में रह रही है, ऐसा फर्क कभी महसूस नहीं हुआ. बाद में वासंती दिघे और शेखर सोनालकर की शादी होने के बाद वासंती दिघे, उनका बेटा कबीर और बहू रत्ना भी उनकी विरासत को आगे चला रहे हैं.

घर की ये विरासत शेखर सोनालकर को मिली. लेकिन इसके साथ ही युवावस्था में आपातकाल विरोधी आन्दोलन में उतर गये और सिर्फ उतरे नहीं, बल्कि कारावास भी भोगा. इस देश के लोकतंत्र और धर्मनिरपेक्षता का, लोकतांत्रिक संस्थाओं का हमें जी जान से रक्षा करनी चाहिए, तभी देश का भविष्य उज्ज्वल होगा, ऐसा उनका अदम्य विश्वास था.

शेखर सोनालकर का जीवन एक तरह से चलता- बोलता आन्दोलन था. उनके द्वारा लड़ी गयी लड़ाइयाँ और सामाजिक, राजनीतिक जागृति के लिये किया गया लेखन एक वास्तुपाठ है. आज भारत के सर्वसामान्य जीवन का उध्वस्तीकरण शुरू है. ऐसे समय में सोनालकर का होना आधार स्तंभ होता. देश के लोकतंत्र को बचाने की सभी प्रकार की लड़ाई में उनकी छाप निश्चित रूप से महसूस की जाती रहेगी.

साथी शेखर सोनालकर को क्रांतिकारी सलाम.