सुबह के साढ़े चार बजे हैं। फज़र की नमाज़ ख़त्म हो गई है। पर उसके बाद कोई घंटे भर से शहर की सारी मस्जिदों में क़ुरआन शरीफ की आयतों का समवेत और सांगीतिक पाठ हो रहा है। लाउडस्पीकरों से आती हुई आवाज़ें बहुत तीखी नहीं तो बहुत मद्धम भी नहीं, और डल के पानी से टकरा आती हुई उनकी प्रतिध्वनि कानों में जलद-मंद्र-रव सा घोल रही है।

माहौल में कुछ वैसी ही अलौकिकता है जैसी कि छठ में सूरज के उगने के ठीक पहले होती है। बात दीगर है कि वह एक कठिन व्रत की समाप्ति का द्योतक होता है, यहाँ यह महीने भर चलने वाले एक महाव्रत की रोज़ाना आगाज़ का वक्त। बच्चे-बूढे, स्त्री-पुरुष सभी रोजे से हैं, निर्जला व्रत। चेहरे पर कोई शिकवा नहीं, बल्कि एक तपोद्भूत तेज।

सुबह की आहट के साथ ही सामने झील के पानी पर खड़ी हाउसबोटों पर टिमटिमाती बत्तियां एक एक करके बुझने लगी हैं, और चिड़ियों के बीच एक खामोश सी सुगबुगाहट सुलग उठी है।

पीर पंजाल की अंजुलि के बीचो-बीच स्थित डल एक नैसर्गिक झील है और उसके इर्द-गिर्द बसा है श्रीनगर। पहाडों का सारा पानी लेकर लिद्दर झेलम में उतरती है और झेलम डल में। इसीलिए इसका आकार हुसैन सागर की तरह सुसंगत नहीं। कई बार शहर झील में घुस आया है और कई दफ़ा झील शहर में। जज़ीरे हैं, नहरें हैं, झील के बीच नदी है और नदी के बीच झील। किनारे किनारे सुतवां पोपलर हैं , नाज़ुक तने वाले विलो हैं और छतनार पत्तियों वाले चिनार। उतुंग देवदार और झब्बेदार शाख़ों वाले चीड़ हैं और अक्षय काष्ठ वाले अखरोट।

इनकी फुनगियों पर भी कुछ झुटपुटा सा छा रहा है कि सहसा झील के काले जल पर एक अग्निरेखा सी खिंच गयी है - भोर की पहली किरण। हमारे होटल के ठीक सामने खड़े हरि-पर्वत गढ़ की प्राचीर पर सुनहरी काम की झालर लग गयी है और हमारे एन पीछे ज़बरवान पहाड़ की चोटी पर खड़ा सनातन, उपेक्षित शंकराचार्य मंदिर भी भक् से प्रदीप्त हो गया है ।

दूर पीर पंजाल की हिम-धवल चोटियों को भी नरम धूप के स्निग्ध हाथों ने सहलाना शुरु कर दिया है। इसी के साथ डल पर भी कुछेक शिकारों ने अंगडाई ली है - इक्का दुक्का टूरिस्ट झील में सवेरे की सैर चाहते हैं गो नियम तो शाम की सैर का है। चप्पुओं की काट से तीर की तरह रह कर आगे बढते इन शिकारों को देख कर अपने गाँव के गड्ढों मे पानी पर थिरकती टिड्डियों की याद आ जाती है।

और डल में शाम के बखत शिकारे की सैर का क्या बयान करूँ। आप लेट कर अपना चेहरा पानी के करीब कर लें और शीशे जैसे पानी में तिरते शिकारों को देखें, उसके उपर पीर पंजाल की बर्फानी चोटियों और उनसे एकाकार होते बादलों को, और दूर किनारे पर हज़रतबल मस्जिद के शुभ्र गुम्बद और एकाकी मीनार को, आपको लगेगा कि आप एक अशरीरी लोक में पहुंच गए हैं।

नैसर्गिक सौंदर्य कभी-कभी इतना अनिर्वचनीय होता है कि आप उसे पत्थरों में नहीं ढाल सकते, कलम-कूंची से नहीं उकेर सकते, न ही लफ्जों से बयान कर सकते हैं। इस सौंदर्य का आस्वाद उसके भोग में और आलौकिक प्रतीती का साक्षात उसको चुपचाप अनुभव करने में है। दिनकर तक की लेखनी उर्वशी के उस सौंदर्य को नहीं उचार सकती कि जिसका पुरुरवा ने आलिंगन किया होगा। और अनहद नाद जो कबीर सुन गए, उनको कुमार गंधर्व भी क्या वाणी दे पाये होंगे।

तो कश्मीर के इस सौंदर्य पर इतना ही कहूँगा कि ‘बखान क्या करूँ प्रभु तेरी कीरत निराली’। वैसे भी जो शायर कह गए यानि ‘ गर फिरदौस’ आदि, उसके बाद भला किसी के कहने सुनने को क्या रह जाता है।