एक नयी किताब आयी है- ‘द लकी वन्स’, लेखिका जारा चैधरी. अंगरेजी में है, तो मुझे समय लगेगा. मगर स्वाति, रूनू (बेटी) पढ़ते हुए कुछ कुछ बताती रहती है (वह चार दिन में पढ़ गयी!), उसी आधार पर कुछ बताने से खुद को रोक नहीं पा रहा. बस एक दृश्य/ प्रसंग- पहले थोड़ा परिचय और पृष्ठभूमि-जारा गुजराती है. अब अमेरिका में. 2002 में वह महज 15 या 16 साल की थी. किताब आत्मकथात्मक है, साथ में बीते वर्षों में देश और गुजरात के घटनाक्रम का, बदलते माहौल का चित्रण. लगभग सारा पढ़ा हुआ, मगर विश्वसनीय पत्र- पत्रिकाओं, किताबों आदि स्रोतों से. इस किताब से सहज ही ‘ऐन फ्रैंक की डायरी’ (नाजी जर्मनी की के समय एक यहूदी लड़की के अनुभव) याद आ गयी.

जारा का परिवार औसत से अधिक समृद्ध और आधुनिक था. दादा आईएएस अधिकारी थे. दादी टेनिस खेलती थीं. बुआ कालेज में शिक्षिका. पिता पढ़ने के लिए अमेरिका गये, मगर बीच में लौटना पड़ा. बिजली विभाग में अधिकारी बन गये. खुशनुमा जिंदगी थी. उनके मित्रों में हिंदू और पारसी भी थे. छुट्टियों में उनके साथ लंबी यात्रा पर जाना रूटीन था. मगर धीरे-धीरे स्थिति बदलने लगी. गुजरात में भाजपा की ताजपोशी के बाद तेजी से. 2002 में सब कुछ बदल गया, हमेशा के लिए. उसी भय के माहौल में और अनिश्चित भविष्य की आशंका से परिवार ने घर छोड़ने का फैसला कर लिया. अब वह प्रसंग-

2002 के मई माह में एक दिन जारा की मां (तमिल) अपनी दो बेटियों के साथ रेल से मद्रास के लिए निकल गयी. भय ऐसा कि साथ में बैठे हिंदू परिवार को अपना सही नाम नहीं बताया. पहले से हिंदू नाम तय कर लिया था. अचानक टीटी आया. अब कोई उपाय नहीं था. टिकटों पर तो नाम दर्ज ही थे. मां ने पूछा- गुजरात क्रॉस कर गये क्या? टीटी ने बताया- बहुत पहले. ट्रेन महाराष्ट्र से गुजर रही है. मां का आत्मविश्वास लौट आया. टीटी को टिकट दिखाते हुए बोल कर अपने नाम बताये. हिंदू सहयात्री भौंचक थे!

मगर आज…देश के कितने हिस्से बचे हैं… ‘गुजरात मॉडल’ का इस्तेमाल कभी विकास के अर्थ में होता था. मगर आज का ‘गुजरात मॉडल’ विकास का नहीं, एक पक्ष के उन्माद का, ‘दूसरों’ के लिए दहशत का प्रतीक बन चुका है! धीरे-धीरे पूरा देश ‘गुजरात’ बन गया है या बनता जा रहा है! यह ‘उनकी’ जीत से अधिक हम सबकी सामूहिक विफलता है! आश्चर्य कि किताब पर अब तक रोक नहीं लगी है!