टीवी को आलोचक ईडियट बॉक्स कहते हैं। इसका मूल कारण क्या है? यही कि देखने वालों के लिए टीवी सोचने -विचारने का भी काम करने लगता है। टीवी रूपाकार दिखाता है - देखनेवाले का मन उसे ग्रहण करता है। टीवी में दृश्यमान ज्ञान की प्रधानता के कारण शब्दों से लैस ज्ञान प्राप्त होने का अवसर और ग्रहण करने का सामर्थ्य कम व कमजोर होता जाता है। मन का काम बढ़ जाता है और दिमाग का घट जाता है। यही वजह है कि बहुत अधिक टीवी देखने वालों, खास कर छोटे बच्चों और किशोरों की बुद्धि मंद होती देखी गयी है। वे मन के स्तर पर भावुकता और उत्तेजना के शिकार होते हैं। बुद्धि के स्तर पर कल्पनशक्ति और तर्कशक्ति के विकास का मौका न पाने या उन पर लगातार चोट होने की वजह से वे अनिर्णय और अनिश्चय के भंवरजाल में उलझ जाते हैं। सृजनशीलता के स्तर पर भी उनके कमजोर होने का खतरा रहता है।

कहने का मतलब यह है कि अखबार हो, या रेडियो या टीवी सबकी अलग-अलग पहचान है और वह पहचान टाइम और स्पेस के उपयोग, अन्तर्सम्बंध और प्रभाव के तरीकों पर निर्भर है। जो अखबार, रेडियो या टीवी में लेखन-संपादन करना चाहते हैं या करते हैं - उन्हें उक्त पहचान का और पहचान के तरीकों का ज्ञान होना चाहिए। अब तो यह पाठक-श्रोता-दर्शक के लिए भी जरूरी हो गया है। बाजार की भाषा में कहें, तो ग्राहक या भोक्ता की मांग से आपूर्ति की सीमाएं और सम्भवनाएं प्रगट होती हैं। अगर पाठक या दर्शक नकार दे तो श्रेष्ठ से श्रेष्ठ अखबार या टीवी चैनल भी पिट जाता है - सफल नहीं हो पाता। हालांकि आज यह भी आधा सच है। आज आपूर्ति के बल पर मांग पैदा करने का बाजार भी गर्म है।

बहरहाल, सम्प्रेषण की प्रक्रिया में मुख्य सवाल है क्या का। किसी सूचना, संदेश, जानकारी में क्या संप्रेषित किया जाना है, यही मुख्य सवाल होता है। पूरा सवाल यह होगा कि कौन किस के लिए किस माध्यम से और किस तरीके से क्या कहता है?

इसका अर्थ यह है कि सम्प्रेषण की प्रक्रिया में क्या के साथ कौन, किसे और कैसे जैसे सवाल भी क्रमशः जरूरी और महत्वपूर्ण होते हैं। लेकिन पाठक-श्रोता या दर्शक के लिए क्या का सवाल ही सर्वाधिक महत्वपूर्ण है। इसलिए किसी सूचना, संदेश या जानकारी में क्या यानी ‘जो कहा गया’ वही सम्प्रेषण का केंद्रीय तत्व माना जाता है। इसे ही सम्प्रेषण का प्राण या आत्मा कहा जा सकता है।

कोई संदेश शब्द, चित्र, संकेत, प्रतीक, बिम्ब या फिर मौन से भी सम्प्रेषित किया जा सकता है।

लेकिन अगर यह सम्बद्ध पाठक, श्रोता या दर्शक यानी जिसके लिए संदेश सम्प्रेषित किया गया, नहीं समझ पाये, तो मानना होगा कि पूरी कसरत बेकार गयी। सम्प्रेषण में कहीं न कहीं कोई खामी रह गयी।

किसी संदेश को न समझ पाने के कई कारण हो सकते हैं। यहां पाठक या श्रोता-दर्शक की समझ की सीमा और स्तर का सवाल उठ सकता है लेकिन अगर सम्प्रेषण करने वाला इस सवाल पर अटका है, तो समझिये कि वह सम्प्रेषण में निहित खामी और कमजोरी को पहचानने के काबिल नहीं है या फिर वह उसे पहचानने से इनकार कर रहा है। अगर वह पहचानने के कोशिश करता है, तो इसका माने है कि वह ग्राहक की समझ और सीमा के सवाल को चुनौती के रूप में स्वीकार करता है और सम्प्रेषण की प्रक्रिया में उस सवाल की सीमाओं का अतिक्रमण करता है। इसीमें उसकी सफलता और श्रेष्ठता निहित होती है।

किसी संदेश का सही सम्प्रेषण न हो पाने के कई कारण हो सकते हैं -

1 - हो सकता है कि उसकी भाषा दुरूह हो। कठिन हो।

2 - संदेश की अवधारणा जटिल हो।

3 - संदेश कोई स्पष्ट निष्कर्ष न पेश कर पाता हो।

कोई संदेश असरदार है, तो मानना होगा कि उसमें कुछ ऐसी विशेषताएं होंगी - 1 - वह स्पष्ट है।

2 - वह सुसंगत है।

3 - वह संक्षिप्त है।

जो संदेश स्पष्ट, सुसंगत और संक्षिप्त होता है, वह सामान्यतः बोधगम्य होता है।

इससे यह समझ बनती है कि भारी भरकम, ढीलाढीला, पुनरावृत्तिवाला, झटकेदार या उलझा हुआ संदेश भ्रम पैदा करता है।

जाहिर है यह भाषा से जुड़ा मामला है। यानी भाषा सरल हो, शब्दानुशासन हो, निष्कपट हो या कहें कि उसमें ईमानदारी और सच्चाई झलकती हो, तो संदेश बोधगम्य होगा।

कारगर और असरदार सम्प्रेषण की यही कसौटी है। इसके लिए संचार माध्यमों में कई दफे पूर्व परीक्षण की प्रक्रिया भी अपनायी जाती है। यह तकनीक संदेश की सफलता का अनुमान लगाने के लिए अपनायी जाती है। इस पूर्व परीक्षण की तकनीक में किसी संदेश के निम्न लक्षणों की पहचान की जाती है -

1 - संदेश की सार्थकता

2 - पठनीयता

3 - स्पष्टता

4 - प्रस्तुति की प्रभावोत्पादकता

5 - ग्रहणशीलता

6 - संदेश के आकार की सीमा।

संचार माध्यमों में विज्ञापनों की रचना के लिए अपनायी जाने वाली प्रक्रिया से उपरोक्त बातें आसानी से समझी और समझायी जा सकती हैं। शायद यह आपको दिलचस्प भी लगेगा।

विज्ञापन की दुनिया में किसी भी संदेश को क्रियेट करने - उसे नये सृजन के रूप में पेश करने - के लिए उसे चार कसौटियों पर कसा जाता है -

1 - ध्यान (Attention) 2 - रुचि (Interest) 3 - इच्छा (Desire) 4 - अमल (Action)

यानी वह संदेश आपका ध्यान आकृष्ट करे, आपकी रुचि - पसंदगी - को उत्तेजित या उद्दीपित करे, आपमें इच्छा पैदा करे, आपको उस इच्छा पर अमल करने को विवश या प्रेरित करे।

किसी भी संदेश की रचना करने वाले उसकी सफलता के लिए सात कदम चलना जरूरी मानते हैं। वे सात कदम हैं -

1 - किसी भी उत्पादन के बारे में अधिकतम जानकारी कम से कम समय में देकर पाठक-श्रोता या दर्शक में उस पर टिकने की इच्छा जगाना। संदेश आंख-कान को बांधनेवाला हो।

2 - किसी भी उत्पादन की सूचना घटनात्मक ढंग से पेश कर ग्राहक को आकर्षित करना। संदेश पहली नजर में लुभाने वाला हो।

3 - समस्या को वैसे पेश करना, जो किसी को भी अपना लगे - समस्या का ऐसा कथात्मक रूप कि सीधे दिल को छुए और फिर झट उसका समाधान पेश करना, जो जाहिर है, आसानी से हासिल विज्ञापित उत्पादन ही होगा। देखने-सुनने या पढ़ने वाले को लगे कि अरे, इतना आसान समाधान उसके पास है और वह अब तक बेवजह तकलीफ झेल रहा था!

4 - ग्राहक यानी पाठक, श्रोता या दर्शक को अपनी समस्या को समझने में मदद करना। ताकि उसके आधार पर उत्पादन को विज्ञान सम्मत बताया जा सके।

5 - ग्राहक को कायल करना कि उसका संदेश सच्चा है।

6 - पैकिंग, मूल्य का ऐसा चमत्कार पैदा करना (अधिक कीमत के बाद भी आप फायदे में रहेंगे! तीन पीस खरीदो तो एक पीस मुफ्रत! या फिर साबुन के साथ चम्मच! घर में वह सामान है, तो क्या हुआ, जिसको पहले 75 में खरीद रहे थे, वह अब 45 में मिल रहा है -दौड़ो! कहीं तुम्हारे दूकान तक पहुंचने तक दाम न बढ़ जाये। आखिर उस सामान का परमानेंट उपयोग करना है न!)। यह चमत्कार ग्राहक को खरीदने के लिए बाध्य करे।

7 - ऐसी चेतना ग्राहक में भरना कि अगली बार समस्या आते ही वह विज्ञापित सामान को सही समाधान के रूप में याद करे।

इसके बाद भी किसी संदेश के असर के लिए कई अन्य बातों पर नजर रखनी होती है

1 - स्रोत की विश्वसनीयता यानी संदेश कौन देता है या कहता है? संदेश का स्वीकार्य होना, इस पर भी निर्भर होता है। संदेश के असरदार होने का अर्थ ही है कि वह लोगों को या टारगेट ग्रुप को कायल करने वाला हो। यानी उसके कथ्य में ग्राहक की प्रवृत्तियों को प्रभावित करने की शक्ति हो। अखबार में किसी संदेश के लिए पहला पेज अंतिम पेज या बीच का पेज तय करना भी किसी संदेश के प्रति कायल करने का तरीका होता है। रेडियो और टीवी में वाक्पटुता कायल करने की ताकत का स्रोत मानी जाती है।

सामान्य से संदेश को प्रभावी बनाने के लिए उसके कथानक को मानवीय स्पर्श दिया जाता है, उसे नाटकीय बनाया जाता है, उसमें मानवीय संवेदनाओं और संवेगों का इस्तेमाल किया जाता है। संदेश को विश्वसनीय और तर्क संगत बनाने या साबित करने के लिए तालिकाओं और आंकड़ों की मदद ली जाती है। इसके तहत कहानियां बुनी जाती हैं। दान देने की अपील से ज्यादा विस्थापन या बिछुड़ने का दर्द दिखाने वाली कहानी ज्यादा कारगर साबित होती है। बच्चों और औरतों की व्यथा दर्शानेवाला एक चित्र हजार शब्दों से ज्यादा प्रभावी होता है। करो या मरो की तर्ज पर पढ़ो या मरो, एक बूंद दवा, पोलियो हवा जैसे संदेश का कमाल आपको मालूम होगा ही।

इतना फर्क तो आम लोगों को भी दिख सकता है कि अखबार पढ़ने के लिए रचा जाता है। रेडियो में हर रचना सुनने के लिए बनती है। टीवी का हर कार्यक्रम देखने-सुनने के लिए बनता है।