अखबार, रेडियो और टीवी संचार के माध्यम हैं। संचार माध्यम यानी कलात्मक अभिव्यक्ति एवं संप्रेषण के माध्यम। आम भाषा में अखबार लेखनधर्मी कला है या सीधे कहिये कि एक प्रकार की दृश्य कला है। रेडियो प्रसारणधर्मी विधा है या ठेठ शब्दों में कहें तो, वह श्रव्य कला है। टीवी दृश्य-श्रव्य कला है। यानी अभिव्यक्ति और सम्प्रेषण का ‘विजुअल’ साधन अखबार, ‘ऑडियो’ माध्यम रेडियो और ‘ऑडियो-विजुअल’ माध्यम टीवी।
लेकिन कला रूप में उनका वर्गीकरण करें तो संचार माध्यमों के रूप में उनकी अवधारणा और प्रक्रिया ज्यादा स्पष्ट होगी।
अतीत से अब तक के चिंतन ओर अनुभव के आधार पर दुनिया की तमाम कलाओं का वर्गीकरण दो भागों में किया गया है। एक को अनुवादी हिंदी में ‘स्थान कला’ या देश कला यानी स्पेस आर्ट कहा जाता है और दूसरे को ‘समय कला’ यानी टाइम आर्ट। स्पेस और टाइम आर्ट के लिए हिंदी जगत में अपना सा, सार्थक और शास्त्रीय शब्द का अन्वेषण हुआ या नहीं यह मालूम नहीं। वैसे, आपने भी सुना होगा कि स्पेस आर्ट को स्थूल या सत्तासिद्ध कला कहा जाता है और टाइम आर्ट को प्रतीतिसिद्ध कला कहा जाता है।
स्पेस आर्ट का अर्थ है ऐसी कला, जो स्थान घेरती है। ऐसी कला के मूल तत्व स्थूल होते हैं। स्थूल यानी आयतन युक्त। इस वर्ग में चित्रकला, मूर्त्ति कला, शिल्पकला, वास्तुकला आदि आते हैं। टाइम आर्ट उसे कहेंगे, जो कला भौतिक रूप में नजर नहीं आती। उसकी प्रतीति होती है। उसका भौतिक रूप नहीं दिखता लेकिन जिसे महसूस किया जा सकता है। उसको हम न देख सकते हैं और न उसको छू सकते हैं। इस वर्ग में गायन, वादन (संगीत) और नृत्यकला शामिल हैं।
वैसे, टाइम और स्पेस - काल और देश दोनों को, दोनों के बीच के सापेक्ष्य सम्बंधों से ही परिभाषित किया जा सकता है। दोनों के अन्तर्सम्बंधों से ही कला का जन्म होता है। जैसे इन्सान लेखन के जरिये अपनी कल्पना और विचारों को व्यक्त करता है। कल्पना और विचार का माध्यम है आकार या भाषा। भाषा शब्दों से बनती है और शब्द? शब्द बनते हैं ध्वनियों से। विचारकों के अनुसार संसार में ऐसा कोई ज्ञान नहीं है, जो शब्दों या ध्वनियों के बिना प्राप्त होता है। वैसे, यह शोध का विषय है ही कि दुनिया में ध्वनि, लिपि और भाषा में कौन किसका उत्स है?
रूप या आकार बनाता या उसे ग्रहण करता है मन। यह मन का कार्य है। कोई रूपाकार अच्छा है या बुरा, लाभदायक है या हानिकारक, इसकी अनुभूति भी मन में होती है। लेकिन उसकी समझ पैदा करता है दिमाग। या कहिये कि बुद्धि से यह समझ पैदा होती है।
दूसरे शब्दों में मन में अनुभूति होती है लेकिन उसकी समझ बनती है बुद्धि से। जो रूपाकार मन में बनता है और उससे अच्छा-बुरा जो कुछ मन ग्रहण करता है, उसकी ग्रहणशीलता समझ पर निर्भर करती है। समझ पैदा करना बुद्धि का कार्य है। बुद्धि तर्क करती है। यानी तर्क समझ का आधार है। तर्क शब्दों के बिना संभव नहीं है।
कहने का कुल आशय यह कि अनुभूति से लेकर समझ तक के समस्त कार्य एवं गति देश (स्पेस) और काल (टाइम) के बीच के सम्बंधों पर निर्भर है। किसी भी कार्य का प्रगटीकरण भी उन्हीं सम्बंधों पर टिका है। कोई कार्य तभी कला कहलाता है, जब वह देश और काल के सम्ंबधों का इंद्रजाल रचने में कामयाब होता है।
आप कहते ही होंगे कि अखबार ऐसा आईना है, जिसमें हम अपने समय की तस्वीरें रोज देखते हैं - देख सकते हैं। समय की वास्तविकता से रूबरू होते हैं। कुछ लोग इसे ही कहते हैं - इंद्रजाल! यानी अखबार समय के यथार्थ की इंद्रजालिक (ऐंद्रजालिक!) तस्वीर पेश करने वाला आईना है। खैर।
लेखन, प्रसारण या दृश्य-श्रव्य कला का विकास, उसका उपयोग, उसकी सफलता और उसका प्रभाव उन्हीं इंद्रजालिक सम्बंधों की पहचान, अन्वेषण और उपयोग पर निर्भर करता है। आज अखबारों, रेडियो केंद्रों और टीवी चैनलों में जबर्दस्त होड़ लगी हुई है। उसे आप नाम-पैसा और सत्ता की छीना-झपटी का व्यापार कहते होंगे। लेकिन आप किसी को सफल और श्रेष्ठ कहते हैं, तो समझिये कि उसने अपने माध्यम से देश और काल के सम्बंधों का इंद्रजाल रच दिया!
अभिव्यक्ति, सम्प्रेषण, प्रसारण या कुल मिलाकर संचार की प्रक्रिया, उसके असर और अनुभव को सूत्रबद्ध करें, तो यह आधार दिखता है कि
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पढ़ने से ज्यादा सुनने का और सुनने से ज्यादा देखने का मानसिक अनुभूति पर तेज और गहरा असर होता है।
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दूसरी ओर देखे से ज्यादा सुने और सुने से ज्यादा पढ़े का दिमागी समझ पर तेज और गहरा असर होता है।
अखबार हो या रेडियो या टीवी - किसी की भी प्रस्तुति की सफलता और श्रेष्ठता के तमाम रास्ते इन्हीं सूत्रों से बनते हैं।
आप तो जानते ही हैं कि जो सफल है, वह श्रेष्ठ हो, यह जरूरी नहीं। जो श्रेष्ठ है, वह सफल हो यह भी जरूरी नहीं।
श्रेष्ठता और सफलता के बीच जोड़ या घटाव भी अंततः टाइम और स्पेस के बीच के सम्बंधों से निरंतर बनते-बदलते इंद्रजाल की पहचान कराता है।
टाइम आर्ट यानी टीवी का कोई सफल माना जाने वाला दृश्य-बंध देखने वाले के दिल-दिमाग में कल्पना, समझ या विचार के लिए कितना टाइम (मौका या फुर्सत) पैदा करता है, यह उसकी श्रेष्ठता के पैमाना बनता है। इसी तरह अखबार जैसा स्पेस आर्ट शब्दों के जरिये पाठक के अंदर दृश्य या अनुभूति का स्पेस पैदा करता है, तो यह उसकी श्रेष्ठता का पैमाना बनता है।