पिछले कुछ महीनों से आदिवासीयत को लेकर ऐसी बहस चल रही है जो पहले कभी नहीं चली. आदिवासी समाज को लेकर तरह-तरह के भ्रम, अतिरंजित बातें, उस समाज के रीति रिवाज और परंपराओं को विकृत कर पेश करना तो गैर आदिवासी द्वारा चलता रहा है. लेकिन इस बार आदिवासियत को लेकर भ्रम की स्थिति बनाने में आदिवासी समाज के कुछ नेताओं ने ही अपनी क्षुद्र राजनीति के लिए इस दिशा में भूमिका निभाई है. और यह सवाल मौजू हो उठा है कि आदिवासियत दरअसल क्या है? आदिवासी अस्मिता और पहचान दरअसल क्या है?

कुछ वर्ष पहले जेएनयू में आदिवासी साहित्य और समाज पर हुए एक सम्मेलन में अनु सुमन ने मंच पर बहुत ही आवेग से बताया था कि उसके कुछ गैर आदिवासी मित्रों को लगता है कि आदिवासी नरभक्षी होते हैं. मुख्यधारा की फिल्मों में ही नहीं, आदिवासी साहित्य के गंभीर गैर-आदिवासी लेखन में भी आदिवासी समाज के बारे में अतिरंजित बातें लिखी देखने को मिलती है. महानगरों में आदिवासी समाज के बारे में बहुत अज्ञानता से भरी बातें कहीं सुनी जाती है. क्रूरता और संवेदनहीनता की हद तो यह कि कुछ लोग उनकी विपन्नता को उनकी संस्कृति का ही हिस्सा मान लेते हैं. लेकिन अब इस तरह की धारणाएं खुद आदिवासी समाज का संपन्न तबका भी फैलाता दिखाई देता है. इसी फेसबुक पर कई आदिवासी मित्र ऐसे मिल जायेंगे जो उसे एक पियक्कड़ और निकम्मे कौम के रूप में चित्रित करते हैं.

आईये, अब सीधे सवाल पर आ जाते हैं. क्या गौमांस खाना आदिवासियत की पहचान है. कुछ हिंदू के रूप में परिगणित जातियों को छोड़ मांसहारी दुनियां की बड़ी आबादी गौमांस खाती है. लेकिन वह आदिवासी नहीं. आदिवासी समाज में भी एक हिस्सा ऐसा है जो गौमांस क्या, मांस भी नहीं खाता है. बावजूद इसके वह आदिवासी है. कोई गैर आदिवासी गौमांस खा लेने पर भी आदिवासी नहीं बन सकता. लेकिन लोग भाजपा और संघ परिवार के झांसे में आ कर गौमांस को लेकर इस तरह का बयान देने लगे मानो आदिवासियत की सबसे बड़ी पहचान यही है.

इसी तरह का विवाद चुंबन को लेकर भी चल पड़ा. कुछ बीमार और क्षुत्र राजनीतिज्ञों ने एक मेले में चुंबन प्रतियोगिता करा डाली और बहस चल पड़ी. कुछ लोग चुंबन को खुलेपन की पहचान बताने लगे. कुछ आदिवासी समाज की पहचान. लेकिन क्या खुले में, सार्वजनिक रूप से आदिवासी युवा और युवती का चुंबन लेना आदिवासियत की पहचान है? मेरे अनेक आदिवासी मित्र हैं. आज से नहीं, दशकों से. लेकिन मैंने कभी भी उन्हें अपनी पत्नी या प्रेयषी को सार्वजनिक रूप से चुंबन लेते नहीं देखा. दरअसल पूर्णरूपेण नग्न हो जाने के बावजूद आप अश्लील नहीं होते, लेकिन पूरे कपड़ों में भी अश्लील हो जाते हैं. महानगरों में विदेशी सैलानी कभी कभार सार्वजनिक रूप से चुंबन लेते दिख जाते हैं. आज कल प्रेमातुर युवा जोड़ों से आपके आसपास के पार्क आदि भरे पड़े दिखते हैं. हो सकता है उनमें कुछ आदिवासी युवा भी हों, लेकिन यह भी आदिवासियत की पहचान नहीं.

तो, क्या है पहचान?

समभाव से जीवन के सुख-दुख को ग्रहण करना.

जीवन-जगत के प्रति एक उदात्त जीवन दृष्टि.

प्रकृति से अनुराग. उससे उतना ही लेना जितना बहुत जरूरी हो.

गाय का दूध नहीं पीना, क्योंकि दूध बछड़े के लिए होता है.

रात में कुंए- तालाब को नहीं छेड़ना, क्योंकि वह उनके आराम का समय होता है.

समय-समय पर धरती को परती छोड़ना ताकि उसे विश्राम मिले.

भोज के वक्त कुत्ते का भी हिस्सा सुनिश्चित करना.

गली गलौच की भाषा का इस्तेमाल नहीं करना.

खुले आकाश के नीचे चट्टान की कोख से उगना और शाल वृक्ष की तरह तन कर खड़े रहना

आदिवासियत की पहचान है.

आईये, इस पहचान को और मुक्कमल करें ताकि मानवता के भविष्य के लिए हम उसे बचाने के

लिए कृतसंकल्प हों.