भाजपा पार्टी का यह बहुत पुराना नारा है, जो भारत में (अमेरिका की तरह ) राष्ट्रपति शासन पद्धति लाने की योजना को एक कदम आगे बढाने की चाल है. भाजपा और मोदी यह तर्क दे रहे हैं कि बार- बार चुनाव का खर्च देश पर बहुत बड़ा बोझ बन गया है.अब इस खर्च वाले मामले तो सरकारी आंकड़ों से ही समझें.

मोदी सरकार के आंकडे हैं कि बिहार जैसे बड़े राज्य के 2015 के विधान सभा चुनाव और कर्नाटक के 2018 के विधान सभा चुनाव में सरकार का कुल खर्च क्रमशः 300 करोड़ और 500 करोड़ रुपये का था.

2009, 2014 और 2019 के लोक सभा चुनावों में सरकार के कुल खर्च क्रमशः 1483, 3426 और 6500 करोड़ रुपये थे.

भारत का सालाना GDP (कुल राष्ट्रीय पैदावार) 210 लाख करोड़ है. देश का 2019- 20 का पिछली मोदी सरकार का बजट 25 लाख करोड़ रुपये का था. हरेक साल कमोबेश उसी के आस पास रहता है - भविष्य में बढेगा ही.

एक बड़े राज्य का चुनाव का खर्च GDP के एक लाख रुपये में केवल एक रुपया है. चूंकि चुनाव पाँच साल में केवल एक बार ही होते हैं इसलिए GDP में यह अनुपात एक लाख में केवल 20 पैसा है.

उसी तरह केंद्र सरकार के सालाना बजट के एक लाख रुपये में एक बड़े राज्य के चुनाव का खर्च केवल 10 (दस) रुपया है. पाँच साल के चुनाव में यह अनुपात बजट के एक लाख रुपये में केवल 2 रुपया है.

ध्यान दें कि ऊपर की गणना में हमने उस राज्य की बजट राशि के सरकार के उपलब्ध धन को नहीं जोड़ा है . उसे जोड़ने पर चुनाव खर्च का अनुपात सरकार के एक लाख में केवल डेढ़ रुपये का रह जाएगा.

देश में संविधान, लोकतंत्र और संविधान सम्मत संघीय शासन प्रणाली को तोड़ने के लिए मोदी और भाजपा द्वारा चुनाव खर्च का झूठा तर्क पूरे शोर शराबे के साथ फैलाया जा रहा है. सही आंकड़ों द्वारा आप सब इसका खंडन करें और जनता तक ले जाएँ.

“चुनाव की घोषणा के बाद सरकारी नीति निर्णयों पर रोक” तो एक निहायत छोटी बात है. उसे या तो हटाया जा सकता है या उसकी अवधि बहुत छोटी की जा सकती है. उसके बहाने पूरे संविधान को बदलने की बात एक कुटिल चाल है. उस झांसे में मत पड़ें.