आजीवन एक ही इन्सान के साथ रहने की परम्परा स्त्रियों के लिए तब तक घातक ही है जब तक पुरुष औरतों को इन्सान न समझ ले. परिवार एक स्त्री के शोषण का मुख्य गढ़ होता है. जब तक परिवार में स्त्री को सम्मान जनक स्थान नहीं मिल जाता तब तक परिवार के टूटते रहने की परम्परा खत्म नहीं होनी चाहिए.

सामान्यतः भारतीय समाज में परिवार के दो रूप ही देखने को मिलते हैं— एकल परिवार तथा संयुक्त परिवार. आम धारणा के तहत यह माना जाता है कि एक आदर्श परिवार के रूप में संयुक्त परिवार ही बेहतर है, जहां सब लोग बहुत ही खुशी से मिल जुल कर रहते हैं. बूढ़े-बुजुर्ग अपंग, बेरोजगार और विधवा महिलाओं को पनाह मिलती है. खर्च कम होता है. यहां एकल परिवार वालों को एक तरह से स्वार्थी मान लिया गया है, क्योंकि वह जन्म देने वाले माता-पिता की जिम्मेदारी नहीं उठाते, बच्चों को दादा दादी का प्यार नहीं मिलता, वे अक्सर अकेलापन के शिकार हो जाते हैं. यह मान लिया गया है कि एकल परिवार आधुनिकीकरण का दुष्परिणाम है. व्यक्तिगत स्वतंत्रता के नाम पर जिम्मेदारियों से बचने का उपाय है.

इस मेनस्ट्रीम धारणा के विपरीत ग्रामीण संथाल परिवार एकल ही पाए जाते हैं. माता— पिता अपने बेटे की शादी के एक—दो साल के अंदर ही उन्हें अलग कर देते हैं. गांव में यह एक सामान्य घटना मानी जाती है. यह देखा गया है कि जिन परिवारों की आर्थिक और सामाजिक स्थिति गांव में उच्च थी, वह दो-तीन पीढ़ी तक परिवार को बांधकर रखते थे. साथ में रहना उनके लिए प्रतिष्ठा की बात थी और दुर्भाग्य से अलग होने की नौबत आने पर यह उनके लिए शर्म की बात होती जाती. इसकी वजह यह हो सकती है कि तथाकथित प्रतिष्ठित संताल खुद को मुख्यधारा से बराबरी करने के इच्छुक रहते हैं, जहां संयुक्त परिवार को आदर्श परिवार की तरह देखा जाता है.

चूंकि संताल परिवार पितृसत्तात्मक होता है तो निश्चित रूप से महिलाओं की स्थिति पुरुषों से कमतर ही होगी. घर की महिलाएं सुबह सबसे पहले उठकर घर- गुहाल और कुल्ही (गली) की नियमित सफाई करती हैं.

चूकि अधिकतर घर मिट्टी के बने होते हैं, रोज गोबर से उसकी लिपाई भी करनी होती है, नहीं तो मिट्टी की परत उखड़ने का डर रहता है. साल में एक बार मिट्टी से लीपना भी होता है. कम से कम 2 लेयर में जिसमें लगभग 2 महीने तो लग ही जाते हैं. इसके लिए औरतें मैदान से खास तरह की चिकनी मिट्टी कोड़, उसे थोड़ा-थोड़ा उठा कर टोकरी में लाती हैं. मिट्टी में गोबर और धान की बाली (जिसमें दाने नहीं होते) मिलाकर अच्छे से साना जाता है. इससे पहले दीवार को खोखला जाता है, फिर उस पर मिट्टी की परत चढ़ाई जाती है. थोड़ा सूखने के बाद उस पर चिकने पत्थर से तब तक घिसाई की जाती है, जब तक लड़की को अपना चेहरा ना दिखाई दे जाए. मतलब शीशे की तरह चिकना होना जरूरी होता है. ऐसा करने के क्रम में लड़कियों के हाथ में छाले पड़ जाते हैं. कभी-कभी तो खून भी निकलने लगता है. यह प्रक्रिया हर साल दोहराई जाती है. गांव की लड़कियों के बीच यह प्रतियोगिता ही रहती है कि कौन कितना सुंदर लिपाई पुताई कर सकता है. पर बरसात आते ही सारी मेहनत पानी के साथ बह जाती है. मतलब पूरे घर को साफ और सुंदर बनाए रखने की पूरी जिम्मेदारी महिलाओं के हाथ में होती है. जिस घर में औरतें नहीं होती, वह घर खंडहर बन जाता. इसलिए जिस परिवार में बेटियां नहीं होती वहां बेटों की जल्दी शादी कर दी जाती ताकि घर घर जैसा लगे.

दूसरा, खाना बनाने का काम भी औरतें ही करती हैं. अक्सर सब्जी की व्यवस्था भी औरतों को खुद करना होता है. खेतों और जंगलों से तरह-तरह के साग तोड़कर लाना उनका लगभग रोज का काम रहता है. घोंघा जो संथालों का प्रिय भोजन होता है, उसके लिए औरतें घंटों तालाबों में डुबकी लगातीं हैं. जलावन के लिए जंगलों से लकड़ी काटकर लाना, फिर खाने के लिए सखुवा के पत्ते से पत्तल बनाना, घर में इस्तेमाल के लिए खजूर के पत्ते की चटाई बनाना, झाड़ू बनाने के लिए मैदान से ‘सागाक्’( एक खास प्रकार का घास )तोड़कर लाना, तोड़ने के क्रम में अक्सर हाथ में फोका हो जाता है. गद्देदार बिछावन के लिए ‘गादले’ बनाना.

खेती के दिनों में औरतों का काम डबल हो जाता है. सबसे पहले उठकर घर का सारा काम निपटा कर पुरुषों के साथ खेत निकल जाती हैं. फिर शाम को थक हार कर फिर से घर में खाना बनाकर सबको परोसना. जिस परिवार की आर्थिक स्थिति खराब होती है, वहां औरतों को दूसरों के यहां मजदूरी करने भी जाना होता है. इसके विपरीत पुरुष केवल खेती के दिनों में केवल खेत में काम करते हैं और पैसे थोड़ी कम पड़ गए तो मन मुताबिक मजदूरी करने चले गए, इतना कुछ करने के बाद भी उस घर में एक औरत दूसरे नंबर पर ही आती है. पुरूषों की अपने घर के प्रति कोई खास जिम्मेदारी नहीं होती वे अपने मन मुताबिक काम करते हैं क्योंकि वह घर का मालिक होता है. इस कारण से औरतों को पुरुषों की लापरवाही सहन करनी पड़ती है. घर के लड़कों का अधिकतर समय तो ‘कुल्ही पींडा’ में जुगाली करते बीतता है. संयुक्त परिवार में यूं तो भोजन बहुएं ही बनातीं हैं, पर खाना परोसने का हक केवल सास को होता है. यह देखा गया है कि सासू मां बाकी सब को तो समय पर खिला देती हैं, पर बहू को समय पर खाना देने के लिए उपलब्ध नहीं होती हैं. गलती से अगर बहू खुद से खाना निकाल कर खा ले तो यह झगड़े का बहुत बड़ा कारण बन सकता है. इसलिए वो भूखे -प्यासे चुपचाप रहना ही बेहतर समझती है. बहू को बात-बात पर ताने मारना सासू मां का प्रिय शगल होता है. बहुएं एक सीमा तक ही इन सब बातों को सहन करतीं हैं, अन्यथा मायके भागने के लिए उसका ‘मोटरा’ हमेशा तैयार रहता है. इस हिसाब से देखा जाए तो यह ‘मोटरा’ लेकर भागने की परंपरा’ ने हीं लड़कियों को घरेलू हिंसा से बचाए रखा है काफी हद तक. ‘मायके से डोली और ससुराल से अर्थी निकलने’ टाइप की यहां कोई अवधारणा नहीं है! इसी धारणा के कारण हिंदू स्त्रियां मरने तक भी ससुराल का मोह त्याग नहीं पातीं या समाज उसे रहने के लिए मजबूर करता है.

संताल पुरुष यूं तो शांत स्वभाव के होते हैं, पर नशे की हालत में अक्सर ही मारपीट पर उतर आते हैं. आज से 20 साल पहले तक महिलाएं ससुराल में हो रहे किसी भी प्रकार के दुर्व्यवहार को अधिकतर सहन नहीं करतीं थीं और तुरंत ही ‘सकाम-चिरा’ (विवाह- विच्छेद) कर दूसरी शादी की तैयारी करती थी. लेकिन समय के साथ ‘सकाम- चिरा’ की परंपरा खत्म होती गई और यह बहुतायत में देखा जा रहा है कि बहुत ज्यादा प्रताड़ित होने के बावजूद औरतें ससुराल छोड़ नहीं रहीं हैं. खासकर शिक्षित महिलाएं अपने पति से अलग होने में वैसे ही बदनामी महसूस करने लगी है जैसे हिंदू स्त्रियां महसूस करती हैं. इसे अपसंस्कृति का प्रभाव ही कहा जा सकता है और इस प्रभाव को कहीं से भी सकारात्मक तो नहीं कहा जा सकता महिलाओं के लिए.

आजीवन एक ही इन्सान के साथ रहने की परम्परा स्त्रियों के लिए तब तक घातक ही है जब तक पुरुष औरतों को इन्सान न समझ ले. परिवार एक स्त्री के शोषण का मुख्य गढ़ होता है. जब तक परिवार में स्त्री को सम्मान जनक स्थान नहीं मिल जाता तब तक परिवार के टूटते रहने की परम्परा खत्म नहीं होनी चाहिए.