तीन बातों के लिए बिहार का चुनाव इतिहास में दर्ज किया जाएगा. पहला तो तेजस्वी यादव का इस चुनाव में अप्रत्याशित रूप से एक मजबूत नेता के रूप से उभकर सामने आना. तीन महीना पहले तक लोग यह मानकर चल रहे थे कि तेजस्वी, नीतीश जी के नेतृत्व वाले गठबंधन के मुकाबले में खड़े भी नहीं हो पाएंगे. लेकिन जिस प्रकार तेजस्वी ने चुनाव का अभियान चलाया उससे उनकी एक नई छवि उभर कर सामने आई. उसका मुकाबला करने के लिए मोदी सरकार को ही बिहार के चुनाव मैदान में उतरना पड़ा. यह भी याद रखने वाली बात होगी कि पहली मर्तबा भाजपा को नीतीश जी की वजह से बिहार में एक मजबूत जमीन मिल गई.

यह कहना कि चिराग पासवान ने नितीश जी को गंभीर नुकसान पहुंचाया, आंशिक सत्य है. पूरा सत्य तो यह है कि चिराग ने भारतीय जनता पार्टी के ही एजेंडा को पूरा किया है. नीतीश जी का वोट तो भाजपा को मिल गया. लेकिन भाजपा का वोट नीतीश जी को नहीं बल्कि चिराग के उम्मीदवारों को मिल गया. यह स्पष्ट दिखाई दे रहा था. लेकिन प्रधानमंत्री जी ने या जगत नड्डा ने एक मर्तबा भी यह नहीं कहा कि चिराग पासवान के उम्मीदवार को वोट देने वाले भारतीय जनता पार्टी और नरेंद्र मोदी के विरोधी हैं. बल्कि नीतीश कुमार को जेल भेजने की बात करने वाले चिराग पासवान को इन लोगों ने इसके लिए कभी फटकार तक नहीं लगाई.

एक अन्य बात के लिए भी इस चुनाव को इतिहास में दर्ज किया जाएगा. कांग्रेस पार्टी बिहार में 70 सीटों पर चुनाव लड़ रही थी. लेकिन उनकी ओर से बिहार में 70 सभाएं भी नहीं की गई. लग ही नहीं रहा था कि कांग्रेस पार्टी के नेतृत्व को बिहार चुनाव की गंभीरता का कोई अंदाजा था. राहुल जी ने इस चुनाव में कुल छह सभाएं की. एक दिन में सिर्फ दो सभा. उनसे उम्र में काफी बड़े नरेंद्र मोदी एक दिन में तीन या चार सभाएँ करते थे. प्रियंका जी आई ही नहीं. नतीजा है कि तेंतालीस में सत्ताइस सीटों पर जितने वाली पार्टी के उम्मीदवार सत्तर में महज उन्नीस उम्मीदवार जीत पाए. उनमें चार की जमानत जब्त हो गई.

मुझे लगता है कि कांग्रेस पार्टी भाजपा का विकल्प बन सकती है यह उम्मीद छोड़ देनी चाहिए. बल्कि गैर भाजपा राज्यों के मुख्यमंत्रियों के बीच समन्वय बनाने की चेष्टा होनी चाहिए और इन्हीं के जरिए एक राष्ट्रीय विकल्प बनाने की दिशा में प्रयास किया जाना चाहिए.