देश में हिंदू आबादी करीब 85% और मुसलिम आबादी मात्र करीब 15% होने के बावजूद हिंदू-मुसलिम विवाह के अनुपात में बहुत अंतर है. क्यों? संकीर्ण हिंदूवादी इसे मुसलमानों की साजिश मानते/कहते हैं. यह कि मुसलिम युवक एक दुष्ट योजना के तहत ‘भोली-भाली’ हिंदू युवतियों को प्रेम जाल में फांसते हैं, फिर विवाह कर उनका धर्म बदल देते हैं. इसे ही वे ‘लव जिहाद’ कहते हैं. कुछ मामलों में शायद यह सच भी हो. लेकिन एक तो ऐसे हर प्रेम विवाह के पीछे साजिश और बदनीयती देखना, मेरी समझ से सही नहीं है; दूसरे, ऐसी हर हिंदू युवती को मूर्ख या ‘भोली-भाली’ मान लेना भी गलत और उनका अपमान करना है. मैं ऐसे अनेक जोड़ों को जानता हूं, जिनमें हिंदू युवती ने सोच समझ कर अपनी पसंद से मुसलिम जीवनसाथी चुना; और वे कहीं से मूर्ख या भोली नहीं हैं. इसके उलट उदाहरण भी हैं, यानी मुसलिम पत्नी और हिंदू पति. यहां भी कोई साजिश नहीं. पर यह तो सच है ही कि मुसलिम युवतियों की तुलना में कहीं अधिक हिंदू युवतियां विधर्मी से प्रेम और विवाह करती रही हैं. इसका क्या कारण हो सकता है? मैं एक अनुमान से इसका उत्तर देने का प्रयास कर रहा हूं. यह तुक्का लगे तब भी कृपया पढ़ कर विचार करने का कष्ट करें.

जरा इस बात पर गौर करें कि हिंदू समाज में जो अंतरजातीय (प्रेम) विवाह होते हैं, उनमें सवर्ण लड़कियों का; और उनमें भी कायस्थ लड़कियों का अनुपात अधिक (वैसे यह अनुमान उत्तर भारत के, खास कर बिहार-झारखण्ड और उत्तर प्रदेश के अनुभवों पर ही आधारित है) होता है. क्यों? इस प्रश्न के जवाब में इस गुत्थी का जवाब है या निहित हो सकता है.

मेरी समझ से, जिस समुदाय में खुलापन तुलना में अधिक है, जिस समुदाय की लड़कियों को पढ़ने और नौकरी करने की छूट और सुविधा है, स्वाभाविक ही उस समुदाय की लड़कियों के पास इतर समुदाय के युवकों के साथ समय बिताने, काम करने का अवसर रहता है. इस क्रम में उनमें दोस्ती भी होगी, जो प्रेम में भी बदल सकता है और वे आपस में विवाह करने का फैसला भी कर सकते हैं, करते हैं. तो चूंकि सवर्ण लड़कियां तुलना में उच्च शिक्षा और नौकरी में भी अधिक हैं, बड़े शहरों में अकेली रह कर पढ़ाई करती हैं, फिर नौकरी भी. तो स्वभाविक ही उनके ऐसे रिश्तों में पड़ने की सम्भावना (जिसे कुछ लोग ‘आशंका’ भी कह सकते हैं) भी अधिक होती है.

अब इसी बात को हिंदू-मुस्लिम प्रेम और विवाह पर लागू करके देखें. पता करें कि अपनी आबादी की तुलना में कितनी मुसलिम लड़कियां कॉलेज, इंजीनियरिंग, डॉक्टरी या उच्च शिक्षा के अन्य संस्थानों में जाती हैं? कितनी घर से दूर शहरों में अकेली रह कर पढ़ती और नौकरी करती हैं? जाहिर है, हिंदू लड़कियों की तुलना में बहुत कम.

इसके अलावा मुसलिम समाज के अपने अंदर सिमटे होने या अपने मजहब के प्रति अधिक ‘कट्टर’ या अधिक लगाव, पर्दा प्रथा पर जोर आदि के कारण उस समुदाय की युवतियों के पास इतर समुदाय के युवकों से मिलने-जुलने के अवसर ही कम हैं. क्या यह कारण भी नहीं हो सकता कि हिंदू युवक और मुसलिम युवती के बीच ऐसे संबंध कम बनते हैं?

एक बात और है. कोई हिंदू युवती जब किसी मुसलिम से विवाह करती है, तो वह परिवार अमूमन उसका बांहें खोल कर स्वागत करता है. वैसे मैं नहीं कहता कि हर मामले में ऐसा होता है. फिर भी तुलना में उसे असानी से अपना लिया जाता है. सामान्यतया तो उसका धर्मांतरण भी करा दिया जाता है, यानी वह मुसलिम बन जाती है. हालांकि ऐसे भी कुछ उदहारण हैं, जहां उसकी हिंदू पहचान बनी रहती है. कारण चाहे जो हो, उसे वहां उस भेदभाव का सामना नहीं करना पड़ता, जो किसी मुसलिम युवती को हिंदू से विवाह के बाद उस घर में करना पड़ता है. वह पूजा घर में नहीं जा सकती, शायद रसोई घर में भी नहीं. परिवार के कुछ या अनेक सदस्य संभवतः उसके साथ बैठ कर भोजन करने से भी बचते हों. इन युवतियों के ऐसे अनुभव सुन कर सामान्यतया तो कोई मुसलिम युवती किसी हिंदू से विवाह करने का फैसला लेने से पहले शायद सौ बार सोचेगी.

हालांकि इस सवाल पर रांची के एक युवा शोधकर्ता फरहान ने अपने अनुभव के आधार पर मेरे इस आकलन में सुधार करते हुए कहा : ‘यह सही है कि मुसलिम परिवार में हिंदू लड़की/बहू का स्वागत होता है, पर यह भी सही है कि मुसलिम लड़की जब किसी हिंदू या गैर मुसलिम लड़के से शादी करती है, तो वही परिवार अपनी बिटिया से संबंध खत्म कर लेता है.’ फरहान के मुताबिक इसके पीछे समाज में कायम पितृसत्तात्मक मान्यता और व्यवस्था ही है. मैं फरहान से सहमत हूं.

फिर भी चूंकि हिंदू धर्म और समाज में धर्मांतरण का प्रावधान नहीं है, यानी जो हिंदू के रूप में पैदा नहीं हुआ, वह हिंदू नहीं बन सकता/ सकती, इस कारण गैरहिंदू बहू को हिंदू बना लेने का उपाय नहीं है. ऐसे में एक मुसलिम युवती को बहू के रूप में स्वीकार करना कठिन तो है ही, असम्भव भले न हो. अपवादों की बात अलग है.

वैसे यह मेरा अनुमान ही है. ऐसे मामलों की प्रामाणिक जानकारी नहीं है. कुछ प्रकरण जरूर जानता हूं. ऐसे जोड़ों को जानता हूं, जिनमें मुसलिम से विवाह करने के बाद भी हिंदू युवती हिंदू बनी हुई है, अपने धार्मिक विश्वास के अनुरूप आचरण भी करती है. हमारे परिवार में ही एक ईरानी लड़की (लेखक-पत्रकार विनोद कुमार के बेटे तुषार का विवाह ईरान की एलाहे से हुई है) बहू के रूप में आराम से रह रही है. किसी का धर्मान्तरण नहीं हुआ. हालांकि हमारे परिवार को तो अपवाद ही माना जायेगा.

जो भी हो, इस मामले में असंतुलन तो है. बेशक कुछ मुसलिम धर्मांतरण को यानी गैर मुसलिम को मुसलमान बना लेने को ‘शबाब’ का काम मानते होंगे, मानते हैं. उनको लगता है कि वे ऐसा करकेअपने मजहब का भला कर रहे हैं. इसके लिए छल छद्म का सहारा भी लेते हैं. कुछ ऐसे बदनीयत मुसलिम युवा भी होंगे हैं, जो इस मंशा से एक योजना के तहत किसी हिंदू युवती को प्रेम जाल में फंसते होंगे. मगर अतिवादी हिंदू जिस तरह ‘लव जिहाद’ को मुद्दा बनाते हैं, उसके पीछे मंशा हिंदू समाज का हित नहीं, एक राजनीतिक एजेंडा ही होता है. किसी हिंदू युवती के किसी विजातीय हिन्दू से विवाह करने पर लड़की का परिवार जब विरोध करता है, जब परिवार की प्रतिष्ठा आहत हो जाती है, तब ‘लव जिहाद’ पर शोर मचाने वाले कहीं नजर नहीं आते. संभव यह भी है कि उनके परिवार की कोई लड़की, उनकी बहन ऐसा करे, तो वे अपनी बहन का ही जीना हराम कर दें. यानी जैसा फरहान ने कहा- यह पितृसत्ता का भी खेल है.

वैसे भी अंतर्धार्मिक विवाह में सामान्यतः धर्मांतरण लड़की का ही होता है. इसके पीछे वजह पुरुष प्रधान समाज व्यवस्था है. किसी समुदाय या धर्म में लड़की को अपनी पसंद का जीवनसाथी चुनने का अधिकार ही नहीं है.

इसलिए ऐसा नहीं लगता कि इस मामले में जो असंतुलन दिखता है, वह मूलतः मुसलमानों की किसी व्यापक साजिश या योजना के कारण है.