झारखंड के आदिवासियों के खान पान का एक अहम हिस्सा है कोयनार साग. सामान्यतः साग से हमारा आशय छोटे आकार के नाजुक पत्तियों वाले पौधों से होता है. लेकिन यह साग एक बड़े पेड़ के रूप में होता है और सामान्यतः इसे आदिवासी समाज के लोग ही खाते हैं.

आदिवासी समाज प्रकृति से जुड़ा है और जंगल व पेड़ पौधों के बारे में उसकी जितनी जानकारी है, उतनी बाहर के लोगों को नहीं. और जंगल तो तरह-तरह के औषधीय पौधों का भंडार है. साथ ही वह उन्हीें पौधों बनस्पतियों में से अनेक ऐसे खाद्य पदार्थ भी खोज लेता है जो सुस्वादु और पौष्टिक भी होते है. और इस तरह के साग हर मौसम में मिलते है. कोयनार वैसे गर्मी के दिनों का साग है. नये पत्ते वसंत के बाद लगने लगते हैं और पेड़ कोमल पत्तियों से भर जाता है. उसे तोड़ कर इकट्ठा करते हैं और जैसे अन्य सब्जियां बनती है, उसे बनाते हैं.

कुछ महीनों के बाद इसकी पत्तियां सब्जी बनाने लायक नहीं रह जाती. वे धीरे-धीरे झर जाती हैं. फिर इसमें फूल लगते हैं, जिनका रंग सफेद और बीच में गुलाबी होता है, जिसे ठुमवा का फूल कहते हैं. उस फूल की भी सब्जी बनती है. और जायकेदार चटनी भी.