इसे क़ुबूल नहीं करने का कोई बहाना/कारण नहीं है कि मुझ जैसों के लिए यह जोर का झटका था. वह भी धीरे से नहीं, बहुत जोर से. ‘उनको’ पूरा मौका है इतराने का, जश्न मनाने का, अपने विरोधियों पर तंज कसने का भी. ऐसे मौकों पर ‘हम जनादेश का सम्मान करते हैं’ कहने का रिवाज है. जैसे अदालत का मनोनुकूल फैसला न आने पर लोग कहते हैं- ‘हम अदालत के फैसले का सम्मान करते हैं!’ लेकिन और कह भी क्या सकते हैं? फैसला अदालत का हो या जनता का, उस पर अमल तो होना ही है. किसी को पसंद हो या न हो. मुझे यह कहने में कोई गुरेज नहीं कि मैं चकित हूं, हतप्रभ भी. और मुझे नहीं लगता कि भाजपा के नेताओं-समर्थकों को भी ऐसे नतीजे की उम्मीद रही होगी. इसके कई कारण होंगे. अभी ठीक ठीक समझने में समय लगेगा. लेकिन जैसा हर चुनावी नतीजे के बाद होता है, इसकी भांति भांति से व्याख्या शुरू हो गयी है. जिनके सारे अनुमान बोदे साबित हो गये, अब वे भी बता रहे हैं कि ऐसा क्यों हो गया.
पांच राज्यों के नतीजों से प्रथमदृष्टया तो यही लगता है कि हर राज्य के मतदाता ने सत्तारूढ़ दल के खिलाफ मत दिया. अब सिर्फ उत्तर प्रदेश में भाजपा को मिली अभूतपूर्व सफलता के आधार पर जो लोग इस परिणाम को ‘मोदी का जादू’ और केंद्र सरकार की जनोन्मुख योजनाओं का नतीजा बता रहे हैं, उन्हें इस सवाल का भी जवाब देना चाहिए कि उस जादू और केंद्र के शानदार काम का असर अन्य राज्यों, खास कर पंजाब में क्यों नहीं दिखा? यदि मान लें कि पंजाब की अकाली-भाजपा सरकार का शासन बहुत ख़राब था और जनता उससे आजिज आ गयी थी, तो फिर यह क्यों नहीं हो सकता कि यूपी की जनता भी सपा सरकार से निराश और कुछ ज्यादा ही नाराज थी?
वैसे भी मुलायम सिंह खानदान ने जिस तरह प्रदेश और पार्टी को बपौती मान लिया था; जिस बेशर्मी से उनका पारिवारिक झगडा सार्वजनिक हो रहा था, उसके पतन पर शायद ही कोई मातम मनाये. कोई आश्चर्य नहीं कि उन लोगों ने खुद भी एक दूसरे के प्रत्याशियों को हारने में भूमिका निभाई हो.
उधर सुश्री मायावती का अहंकार, दलित वोट को अपनी जमींदारी मानने का अंदाज; और मुसलिम मतों पर दावेदारी का वे जिस तरह इजहार करती रहीं कि उनका औकात में आ जाना भी एक तरह से अच्छा ही हुआ.
यह तो दिख ही रहा है कि भाजपा ने यूपी में ‘2014’ को दुहरा दिया. यानी वहां भाजपा और मोदी का प्रभाव बरक़रार है. इसमें कुछ मोदी के व्यक्तित्व और केंद्र सरकार की कुछ योजनाओं का भी असर रहा होगा. रणनीतिक कौशल, जमीन पर लगातार योजनाबद्ध काम, संगठित और आक्रामक प्रचार आदि के मामले में भी भाजपा दूसरों से कहीं आगे और भारी सिद्ध हुई. मगर सबसे बड़ा कारण, मेरी समझ से, यह रहा कि भाजपा (हिंदू) जातियों का बेहतर समीकरण बनाने में सफल रही. मुसलमानों के वोट की चाह और जरूरत उसे कभी रही नहीं. और संसदीय चुनाव में यह साबित भी हो चुका है कि मुसलिम मतों के बिना भी इस देश में बहुमत, वह भी प्रचंड, मिल सकता है. इस बार भी कुछ भाजपा नेता-समर्थक बस इतना कह रहे हैं कि ‘तीन तलाक’ के मुद्दे पर अपने स्टैंड के कारण ‘कुछ’ मुसलिम महिलाओं ने भी भाजपा को वोट दिया. वैसे वे न भी देतीं तो नतीजे पर क्या असर होता?
अब यदि यह दावा सही है कि हिंदू समुदाय के बीच की जातीय दीवारें टूट गयीं (जो निश्चय ही स्वागतयोग्य बात होगी), तो क्या मान लिया जाये कि अब उत्तर प्रदेश का हिंदू समाज एक समरस समाज बन गया? कि अब जन्मना ऊंच नीच का भाव और व्यवहार बीते दिनों की बात हो गयी? कि अब भिन्न जाति में विवाह से किसी युवती के परिवार की ‘प्रतिष्ठा’ पर ऐसी आंच नहीं आयेगी कि वह मरने मारने पर उतारू हो जाये? कि अगले चुनावों में अन्य दलों सहित भाजपा भी क्षेत्र का जातीय समीकरण देख कर उम्मीदवार का चयन नहीं करेगी? ऐसा चमत्कारी बदलाव हो गया हो, तो किसे खुशी नहीं होगी. पर मुझे इसमें संदेह है.
यह संदेह इसलिए कि जिस ‘गुजरात माडल’ को पूरे देश में आजमाने का, देश को ‘गुजरात’ बनाने का और ‘हिंदू एकता’ का जो प्रयास दशकों से निरंतर जारी है; मेरी समझ से, उसके लिए उत्तर प्रदेश एक मुफीद जगह साबित हो रही है. आखिर हिंदुओं के तीनों प्रमुख आराध्य- राम, कृष्ण और शिव- से जुड़े स्थान यहीं है. एक का विवाद बड़े फसाद का कारण बन चुका है; अन्य दो तीर्थ भी संघ-भाजपा की सूची में हैं ही. आखिर मुजफ्फरनगर, कैराना, दादरी, लव जिहाद आदि का असर भी होना ही था/है. योगी अदित्यनाथ को इतना महत्त्व दिये जाने; दंगों के आरोपियों को उम्मीदवार बनाये जाने के पीछे आखिर क्या मकसद रहा होगा.
अच्छी बात है कि इन नतीजों के बाद प्रधानमंत्री फिर से ‘सबका साथ..’ जैसी भाषा बोलने लगे हैं. कुछ संयमित भी नजर आ रहे हैं. लेकिन चुनाव प्रचार के दौरान वे जिस तरह अमर्यादित भाषा का प्रयोग; और परोक्ष रूप से (कब्रिस्तान बनाम श्मशान और हिंदू बिजली-मुसलिम बिजली आदि) सांप्रदायिक ध्रुवीकरण का प्रयास करते दिख रहे थे, उससे संदेह होता है कि यह ‘संयम’ कहीं तात्कालिक और रणनीतिक न हो.
कुल मिला कर, यूपी को छोड़ दें, तो ये नतीजे सहज ही लगते हैं. यूपी में जो हुआ, वह भी यदि केंद्र सरकार के कथित अच्छे काम का ही नतीजा है, तो कोई बात नहीं. लोकतंत्र में जय-पराजय तो एक सहज प्रक्रिया है. उम्मीद की जानी चाहिए कि अब उत्तर प्रदेश का तवरित विकास होगा, वहां अमन चैन स्थापित होगा. लेकिन यदि यह साम्प्रदायिक ध्रुवीकरण, यानी यह यूपी के ‘गुजरात’ बनने का संकेत है, हिंदू समाज द्वारा कट्टर और संकीर्ण ‘हिंदुत्व’ को स्वीकार करने का नतीजा है, तो इसका दूरगामी और नकारात्मक परिणाम सारे देश पर पड़ेगा. मोदी मुरीद या भाजपा समर्थक जिस तरह सोशल मीडिया पर अपने विरोधियों के खिलाफ अपशब्दों का प्रयोग कर रहे हैं, कुछ इसे ‘जाग गया है हिंदू, विजय पताका फहराने को’ के रूप में देख रहे हैं, उससे अनिष्ट की आशंका तो है ही. जब भाजपा-मोदी के आलोचकों को देश छोड़ने की सलाह दी जाने लगे, उन्हें देशद्रोही कहा जाने लगे; और प्रधानमंत्री इस सब पर चुप्पी ओढ़े रहें, तब यह खतरा और बड़ा नजर आने लगता है.