‘लोकतंत्र निर्माण अभियान’ ने जनवरी 10 से 12 तक तीन दिनों का एक महिला शिविर करने का निर्णय लिया. शांतिनिकेतन, बोलपुर की मनीषा ने इस आयोजन की व्यवस्था का भार अपने ऊपर लिया. किरण ने रांची से भारत के विभिन्न हिस्सों में सामाजिक क्षेत्र में सक्रिय महिलाओं से संपर्क किया और उन्हें इस सम्मेलन में शामिल होने का आग्रह किया. उसके इस प्रयास के फलस्वरूप दिल्ली, महराष्ट्र, उत्तर प्रदेश, बिहार, झारखंड, तथा पश्चिम बंगाल की लगभग चालीस महिलाओं ने इस सम्मेलन में भाग लिया. समाज कर्मी और महिलाओं के सहयोगी चार पुरुष भी इस आयोजन में शुरू से लेकर अंत तक शामिल रहे.

तीनों दिन महिलाओं की राजनीतिक, आर्थिक तथा धार्मिक स्थिति पर चिंतन के लिए निर्धारित किये गये. दस तारीख को दस बजे से पहला सत्र शुरू हुआ जो साथियों का परिचय सत्र था. दूसरे सत्र में ‘महिला और राजनीति’ विषय पर चर्चा हुई जो दो बजे दिन से शाम को पांच बजे तक चला. शाम को छह बजे से रात के आठ बजे तक सांस्कृतिक कार्यक्रम हुआ. इसी समय- क्रम में दूसरे दिन यानि ग्यारह तारीख को पहले सत्र में ‘महिला और आर्थिक स्थिति’ पर चर्चा हुई और दूसरे सत्र में ‘महिला और सांप्रदायिकता’ विषय पर चर्चा हुई. तीसरे दिन यानि 12 तारीख को पूरे कार्यक्रम की समीक्षा की गई और भावी कार्यक्रम बना. दो बजे भोजन के बाद शांतिनिकेतन के पास ही स्थित एक संथाल आदिवासीबहुल गांव में जाकर वहां की महिलाओं से मिलने का कार्यक्रम तय हुआ.

10.1.25

– पहला सत्र –

यह परिचय का सत्र था. सम्मेलन में आने वाली महिलाओं ने अपना परिचय दिया, किस संगठन से जुड़ी हैं और क्या काम करती रही हैं, इन सबको आपस में शेयर किया.

– दूसरा सत्र –

विषय - महिला और राजनीति

इस सत्र की मुख्य वक्ता रहीं महराष्ट्र से आयीं वासंती जी. इस सत्र के बहस में उभर कर आयीं मुख्य बाते इस प्रकार हैरू महिलाओं के लिए राजनीति अनमिज्ञ नहीं है. इतिहास के सब कालों में राजनीति में महिलाओं की भागीदारी को पाते है . जीजाबाई, रानी लक्ष्मीबाई और अहिल्याबाई होलकर जैसी महिलाओं ने राजनीति में अपनी छाप छोड़ी है.

भारत की आजादी की लड़ाई में बहुत सारी महिलाओं ने महत्मा गांधी का साथ दिया. आजादी के बाद संविधान बनाने में त ग्राम पंचायतों में महिलाओं को 50ः आरक्षण दिया गया. महिलाएं चुनकर ग्रामपंचायतों में आ रही हैं. फिर भी वे अपने अधिकारों का प्रयोग नहीं कर पाती हैं क्योंकि मुखिया या सरपंच महिला के पति ही उनके अधिकारों का उपयोग करते हैं.

महाराष्ट्र के पंचायत भवन में महिलाएं चप्पल पहन कर नहीं जा सकती हैं और कुर्सी पर नहीं बैठ सकती हैं. महिलाएं झंडोत्तलन भी नहीं कर सकती है. ऐसे में पश्न उठता है कि समाज परिवर्तन की लड़ाई पहले लडी जाय या महिल अधिकारों की लड़ाई.

महिलाएं अपने पति के कहे अनुसार या मुखिया के कहे अनुसार अपने वोट का प्रयोग करती है. राजनीति में जातिव्यवस्था गहरे जड जमाये हुए है. जाति विशेष को वोट पड़ते हैं और उसी जाति की पंचायतें बनती हैं.

महिलाएं परिवार तक सीमित हो जाती है. जहां स्त्री पुरुष में अंतर होता है. शिक्षित होकर भी राजनीति का अनुभव नहीं होने के कारण बहुत सारी महिलाएं राजनीति में नहीं आ पाती हैं.

सत्ता से शक्ति आती है लेकिन राजनीति एक काजल की कोठरी की तरह है. इसमें हर महिला सक्षम नहीं होती है. जिन महिलाओं को सामाजिक क्षेत्र में कार्य करते रहने से समाज को समझने का अनुभव है उन्हें ही राजनीति में जाना चाहिए.

सत्र का प्रारम्भ कोलकता से आई बंगाल की नामी लेखिका जया मित्र के विचारों से हुआ. इस सत्र की बहस से निकल कर आयी मुख्य बाते इस प्रकार हैं -

भारत का अर्थतंत्र पुरुष प्रधान है.

अर्थतंत्र को चलायमान रखने वाला तत्व उत्पादन है और भारत में सत्तर प्रतिशत उत्पादन गांव में होता है.

महिलाएं कृषि में पुरुषों के बराबर ही काम करती है. धानकी रोपनी, कटाई, धानको झाडना और धान से चावल बनाने का काम मुख्य रूप से महिलाएं ही करती हैं.

ग्रामीण उपयोग के वस्त्र तथा अन्य वस्तुएं गांवों के गृह उद्योगों में ही बनाये जाते हैं जिनमें महिलाएं ही काम करती हैं. ‘गृह उद्योग श्रम प्रधान होते है. उनमें में उपयोग होने वाला कच्चामाल अधिकतर प्रकृति से ही प्राप्त होता है. गृह उद्योगों से महिलाओं की आर्थिक स्थिति अच्छी होती है.

गृह उद्योगों में उत्पादित वस्तुओं के बाजार की समस्या होती है. होना तो यही चाहिए कि सहकारी समीतियों के द्वार इन उत्पादों के विक्रय की व्यवस्था होनी चाहिए. जैसे कि शांतिनिकेतन में तैयार वस्तुओं को वहां के दो हटों में बेचने की व्यवस्था की गयी है.

लेकिन बाजार के नेटवर्क के अभाव में गृह उद्योग में बनी वस्तुओं को शहरों से आये दलाल सस्ते दामों में खरीद कर शहर ले जाते हैं और वहां वे उनको दुगने तिगुने दामों में बेचते है. इसके कारण गृह उद्योगों का लाभ उन्हें न मिलकर दलालों को मिलता है.

महिला पूरे परिवार को लेकर चलती है. उसका पैसा परिवार में ही खर्च होता है. हिन्द स्वराज में उत्पादन का यही तरीका बताया गया है. पुरुष भी गृह उद्योगों में शामिल होकर उत्पादन करे और परिवार को आर्थिक रूप से समृद्ध करे.

अब परिस्थितियां इसके उलट हो गई हैं. हाथों से काम करना शर्म की बात हो गई है. गृह उद्योगों में भी मशीनों का प्रयोग होने लगा है. महात्मा गांधी का उपदेश -’ हाथ से काम, साथ का काम प्रेम को बढ़ता है ‘ - भुला दिया गया है.

आदिवासी जीवन पद्धति स्वरोजगार का आदर्श है. वे लोग प्रकृति से प्राप्त साधनों से अपनी जरूरत की सारी वस्तुओं को अपने हाथों से बना लेते हैं.

शहरों की नकल बढ़ गई है. गृह उद्योगों के उत्पादों का भी विज्ञापन होने लगा है.

अधिक लाम कमाने की लालसा बढ गयी है. व्यवसायिक फसलों का उत्पादन बढ़ गया है. जैसे केरल में धान की जगह कॉफी का उत्पादक करना. इससे गांवों का पैसा शहरों में जाने लगा.

शहरों के विस्तार के लिए गांवों की जमीन छिन गयी. जमीन के बदले जमीन नहीं पैसे दिये गये. महिलाएं अपने घर से अलग हो गई. उनका जल जंगल जमीन उनसे छिना गया. बदले में मिला विस्थापन और बेकारी. प्राकृतिक संसाधनों पर कारपोरेट का अधिकार हो गया. मानोवाद के सफाया के नाम पर जंगलो की कटाई हो रही है और खदानों में खुदाई हो रही है. गांवों से लोग शहरों में आ रहे हैं जहां उन्हें गरीबी के अलावा कुछ नहीं मिल रहा है. राजनीतिक पार्टी उन्हें अपना कैडर बना कर केवल गलत काम करा रहे हैं.

हम क्या करें कि विस्थापन न हो. महिलाओं को संविधान से प्राप्त जीने के अधिकार के लिए एक जुट होकर लड़ना है. पुसलिया में एक कहावत है जमीन नहीं तो बकरी पालो. एक बकरी पालने से बहुत कम समय में उनका एक कुनबा बन जाता है जो महिलाओं को आर्थिक रूप से सबल बना सकता है.

धान से मूढ़ी बनाने का काम केवल औरते हीं करती है जो उनके आय का जरिया है.

औरतों में संचय की प्रवृत्ति होती है. वे अपने हिस्से का10ः धान बचा कर रखती है जो जरूरत के समय दूसरी महिलाओं को उधार में दे का उनकी मदद करती हैं.

गांवों को बचाना है तो कृषि को बचाना है. कृषि को औरतें ही बचा सकती हैं. इसके लिए उन्हें एकजुट होना होगा. आजकल कृषि पर्व मनाना फैशन हो गया है लेकिन कृषि पर किसी का ध्यान नहीं है.

कृषि में काम करने वाली महिलाएं आजाद होती हैं और बड़े उद्योगों में वह गुलाम हो जाती है.

गांवों का पानी का अधिकार छिन जाने से पानी की व्यवस्था में उसका बहुत समय बेकार जाता है. वह आर्थिक काम से दूर होती जा रही है. इसलिए जल जंगल जमीन को बचाना है.

कृषि की हिफाजत होगी तो महिलाएं अपना ध्यान शिक्षा स्वास्थ्य जैसी समस्याओं पर भी केंद्रित कर सकती हैं.

गांवों में आजकल माइक्रो फाइनांसिंग संस्थाओं का प्रसार तेजी से हो रहा जो गांव के लोगों को कम ब्याज पर आसान किस्तों में चुकाये जाने वाले कर्ज का लालच देकर उनको इस कुचक्र नै फंसा रहे हैं.

गृह उद्योग तथा कृषि उत्पाद के लिए बड़े बाजारों में खुद से जगह बनानी है. दलालों के चक्कर में नहीं पड़ना है.

11.1.25

– पहला सत्र –

विषयः महिला और सांप्रदायिकता

सत्र की शुरुआत शांतिनिकेतन की भनीषा ने किया और महिलाओं में सांप्रदायिकता पर विचार व्यक्त किये. धर्म व्यक्तिगत आस्था का विषय न होकर सत्ताधारी पार्टी की राजनीति का मोहरा बन गया है. इसके लिए विभिन्न धर्मों में आपसी मतमेद फैलाया जा रहा है. चर्च और मसजिद के सामने जयश्री राम का नारा लगाया जाता है.

धर्म बाजार के हाथों का भी खिलौना है. पर्व त्योहारों में बाजारों में बिक्री बढ़े इसके लिए तरह तरह हथखंडे अपनाये जाते हैं, जैसे क्रिसमस के समय वस्तुओं की डेलवरी करने वाले आदमी को चाहे वह किसी भी धर्म को मानता हो उसे सेंटाक्लाज का पोषाक पहनने के लिए बाध्य किया जाता है. ताकि बिक्री बढ़े.

बाजपेयी जी के जन्मदिन के उत्सव में रघुपति राघव राजा राम भजन गा रही लड़की को रोक कर कहा गया है कि वह उस भजन में आ रहे ‘अल्लाह’ शब्द को बदल दे.

स्कूल के तीन छोटे बच्चों को टेररिस्ट कहा गया क्योंकि उनके टिफिन में गोमांस होने का अनुमान लगाया गया.

शक होने पर कहीं पर भी किसी को रोक कर उसके धर्म के बारे में पूछा जा सकता है.

स्कूल में भी एक धर्म के बच्चे दूसरे धर्म के बच्चों के साथ नहीं बैठते.

धार्मिक कट्टरता शिक्षितों और महिलाओं में ज्यादा है.

स्कूल कॉलेजों में हिन्दू पर्वों की छुट्टियां बढ़ गई हैं.

बंगाल में महिलाएं करवा चैथ नहीं मनाती हैं, न मंदिरों में चढावा चढ़ाया जाता है. लेकिन अब बंगाल में भी महिलाएं करवा चैथ मना रही हैं और मंदिरों में प्रसाद भी चढ़ाया जाता है.

मुस्लिम महिलाएं अनिवार्य रूप से बुरखा पहनने लगी हैं. उनमें अब यह फैशन बन चुका है.

मुस्लिम महिलाओं का बलात्कारी आदरणीय हो जाता है. महिलाएं भी इसकी समर्थक हंै.

अब तो हर मस्जिद को खोदकर मंदिर निकाला जा रहा है. इसके लिए कोर्ट का आदेश पाने के लिए आवेदन देने वालों में महिलाए भी हैं.

हाईकोर्ट के जज भी अपने पद की गरिमा और निष्पक्षता को भूलकर सांप्रदायिक बयान दे रहे हैं.

बांग्लादेश में हो रहे दंगों का प्रभाव बंगाल पर भी पड रहा है. यहां भी सांप्रदायिक हिंसा बढ़ गयी है.

शांतिनिकेतन में पढ़ने के लिए आये मुस्लिम लड़के, लड़कियों को रहने के लिए भाडे़ पर घर नहीं मिलता है.

सरना आदिवासी और क्रिश्चियन आदिवासी को हिन्दू पर्व त्योहार मनाने के लिए बाध्य किया जाता है.

धर्म की रक्षा के नाम पर सत्ताधारी लोग अपने हितों की रक्षा के लिए औरतों का उपयोग कर रहे हैं.

दंगों में नुकसान हो रहा है, तो वह औरत का ही हो रहा है चाहे वह किसी भी धर्म की हों.

साप्रदायिकता के विरुद्ध लडाई की समीक्षा और आगे का कार्यक्रम

महिला सम्मेलन का अंतिम दिन इसकी समीक्षा तथा भावी कार्यक्रम बनाने के लिए निर्धारित किया गया. सम्मेलन में उपस्थित प्रत्येक महिला ने सम्मेलन से जो कुछ भी सीखने को मिला उसको बताया. साथ ही इस शिविर में जो भी निर्णय लिया गया उसे अपने कार्यक्षेत्र में जाकर प्रयोग में लाने की बात कही. महिलाओं ने यह भी कहा कि वे अपने क्षेत्र में महिलाओं की शिक्षा और स्वास्थ्य संबंधी काम भी करेंगी, क्योंकि ग्रामीण स्तर पर इनकी व्यवस्था बहुत ही खराब है.

कई महिलाओं ने राजनीति में महिलाओं को आगे बढ़ाने तथा लोकतंत्र बचाने की अपनी प्रतिबद्धता को दुहराया. लगभग सभी महिलाओं ने कहा कि इस सम्मेलन में आकर उन्हें इतनी सारी महिलाओं से अपना सुख- दुख साझा करने से नई ऊर्जा प्राप्त हुई. उनमें बहिनापा बढ़ा. पर्यावरण के प्रति सजगता बढ़ी.

इस सत्र में कई भावी कार्यक्रम लेने की भी बात हुए:

सबसे पहले सोशल मीडिया में महिलाओं के भ्रष्टाचार को लेकर खबरे आती हैं. इसलिए हम महिलाए प्रण करें कि हम न तो खुद भ्रष्टाचारी बनेंगे और न भ्रष्टाचार होने देंगे.

‘मेरी रात मेरी सड़क’ कार्यक्रम के तहत महिलाएं किसी तय दिन रात को गाना गाते हुए सडको पर निकलें.

30 जनवरी को सफेद कपडे पहन कर जाना तथा ‘ईश्वर अल्लाह तेरो नाम’ लिखी तख्ततियां लेकर और लगातार ‘रघुपति राघव राजा राम’ भजन को गायें.

इसी सत्र में यह घोषणा हुई कि महिला सम्मेलनों की श्रृंखला में अगला सम्मेलन उत्तराखंड में आगामी 30, 31 मई और 1 जून को होगा. इस सम्मेलन का विषय होगा, महिला और पर्यावरण सुरक्षा.

– दूसरा सत्र –

सम्मेलन में सम्मिलित महिलाओं को शांतिनिकेतन के समीप के एक संथाल बहुल गांव में जाकर वहां की महिलाओं से मिलना तय हुआ. सभी महिलाएं दिन में भोजन के बाद गुरुदेव खींद्रनाथ ठाकुर द्वारा बनाये गये विश्व भारती का दर्शन करते हुए लगभग चार बजे तक संथाल गांव पहुंची. वहां उस गांव की अनेक महिलाएं उपस्थित थी. उन सबके साथ मिलकर गीत गाया गया. बाद में विचारों का आदान प्रदान हुआ. गांव की महिलाओ ने बाउल गायकों द्वारा बजाये जाने वाले एकतारा को हमसबों को उपहार में दिया. अल्पाहार और चाय के साथ यह मिलन सभा समाप्त हुई.

विषयवार सत्रों के बीच महिलाओं ने अपने जीवन संघर्ष के ब्योरे भी दिये जो मर्मस्पर्शी थे.