महिलाओं और राजनीति, धर्म और महिला एवं घर गृहस्थी में स्त्री-पुरुष के बीच की असमानताओं को लेकर बोलपुर के शांतिनिकेतन में तीन दिवसीय सम्मेलन हुआ, जिसमें 45 से 50 महिलाओं ने भाग लिया. इस सम्मेलन में महिलाएं दूर दूर से आई थी. मुख्यतः झारखंड, बिहार, उत्तर प्रदेश और महाराष्ट्र से. बंगाल में तो यह सम्मेलन हो ही रहा था. मेरा इस तरह के सम्मेलन में भाग लेने का पहला अवसर था और इस सम्मेलन ने मेरे मानस में उथल-पुथल मचा दी है.

आज हम 21 वी सदी में जी रहे है,ं लेकिन आज भी महिलाओं की स्थिति में कुछ सुधार नही हो पाया हैं. महिलाओं के साथ असमानता, शोषण, उत्पीड़न, भेदभाव पड़े पैमाने पर हो रहा है. उस बैठक में जिनती महिलाएं थी, सभी समाज के प्रति जागरूक, पढ़ी लिखी और किसी न किसी सामाजिक संगठन से जुड़ी थी. सभी मे हिम्मत, समाज परिवार से लड़ने की ताकत थी. इन सबो को देख जब मैने अपने समाज में महिलाओं की स्थिति के बारे में सोचा तो मुझे बहुत निराशा हुई.

सम्मेलन की बातों को सुन मैं अपनी बस्ती या पड़ोस में मेरी जंहां तक पहचान है, उन सभी महिलाओं के बारे में मैं सोचने लगी. वे कभी अपनी जिंदगी के बारे में कुछ सोचती ही नहीं. ये सोच नही पाती की उन्हें राजनीति में जाना है. दुःख इस बात का है कि वो इतनी पढ़ी लिखी नही होती. पढ़ाई के साथ में घर का काम. उम्र होते शादी. बच्चे को देखो, पति को देखो. घर और घर की स्थिति ठीक नही रही तोे बाहर जाकर भी काम करती है. इस बीच उन्हें कहां फुरसत कि वो देश की राजनीति के बारे में सोचे या राजनीतिक क्षेत्र में जाने का विचार करे?

मैं एक उराँव आदिवासी समुदाय की बेटी हूँ. मै खुद अपनी घर मे बचपन से देखते आ रही हूं. मेरे माता- पिता पढ़े लिखे नही हैं. उनसे कभी राजनीति को लेकर बात नही की. लेकिन ‘अमार कुटीर आश्रम’ में जब उन महिलाओं के बीच रही, तो बार-बार ख्याल आया कि हम राजनीति के बारे में क्यों नहीं सोचते? हमारे जीवन में राजनीति का इतना हिस्सा है, तो हम राजनीतिक क्षेत्र में भूमिका क्यों नहीं निभाते? जब हमारा संविधान सबको समान अधिकार देता है, तो राजनीति में महिलाओं की हिस्सेदारी इतनी कम क्यों है?

धर्म, साम्प्रदायिकता और महिला की बात की जाए तो लोग धर्म को भी महिलाओं के ऊपर ही थोपते है. घर हो या बाहर पूजा करना तो महिलाओं को ही करना पड़ता है. लेकिन उसे धर्म को लेकर बस यह सिखाया जाता है कि वह दोस्ती किसी भी धर्म के लोगों से करे, पर उसे अपने धर्म मे ही शादी करनी है. जब कोई लड़की अलग धर्म के लड़के से प्रेम करे, तब उसके घरवाले ये शर्त रखते हैं कि उसे दोनों में एक को चुनना है- माता-पिता का घर या विधर्मी लड़का. तब बहुत सारी लड़कियां तो कुछ बोल नही पाती, लेकिन कुछ लड़कियां ऐसी है जो प्रेम को चुन लेती हैं. परंतु तब उसको घरवाले उसे घर से बेघर कर देते हैं. उससे बात तक नही करते. तब उस लड़की पर क्या बीतती है, जब उसके ही घरवाले साथ नही देते हैं. आगे आने वाली पीढ़ी को यही सिखा रहे है कि हमे बस अपना धर्म को आगे ले जाना है और अपना धर्म को छोड कर कही नही जाना है. तो कैसे मिटेगी साम्प्रदायिकता?

उसके बाद आता है करपोरेट के समान का बहिष्कार? कैसे होगा, जब आदिवासियों से उसका जंगल छीना जा रहा है. जमीन छीनी जा रही है. जो जंगल सदियों से आदिवासियों ने संभाल कर, संजो कर रखा है, उसे सरकार अपने कब्जे में ले रही है. यहां तक कि जिस जंगल से आदिवासी जलावन के लिए पत्ता, लकड़ी इत्यादि लाते थे, उसमे अब पाबंदी लगा दिया जा रहा है, तो लोग क्या करेंगे? उन्हें कारपोरेट द्वारा निर्मित सामानों का ही इस्तेमाल करना पड़ रहा है.

स्त्री और पुरुषों के बीच अंतर की बातें अमार कुटीर आश्रम में सभी सहभागियों ने की. अपनी अपनी बातों को स्षट रूप से समाने रखा. मैं अपनी बातों को वहां नहीं रख पायी. मेरे लिए यह पहला अवसर था, इसलिए मैं घबरा गयी. लेकिन आदिवासी समाज में भी महिलाओं के सथ भेदभाव किया जाता है. महिलाओं को ही सब काम करना पड़ता हैं. खाना बनाने के बाद पुरुषों को ही पहले दिया जाता है. लड़कियां ही घर का काम काज करती हैं, साथ में उसे पढ़ाई लिखाई करनी पड़ती है. कुछ लड़कियों को तो घर से हाथ खर्च भी नही मिलता, जिसके कारण वो कही बाहर काम कर दो पैसा खुद की जरुरत के लिए कमाती हंै और जरूरत पड़े तो घरवालो के लिए भी. लेकिन लड़के काम न भी करे, तो उसे कभी घर मे कोई कुछ नही बोलता. वो पढ़ाई भी नही करते, फिर भी उन्हें अपनी हर जरूर को पूरा करने के लिए घरवालों से मदद मिलती हैं.

यही सब सोचते विचारते तीन दिन का कार्यक्रम बीत गया. इस कार्यक्रम में बहुत सी बातें सीखने को मिली. लेकिन ये बात आगे की महिलाओं तक भी पहुंचना चाहिए और आज के समय मे सभी महिलाओं को खुद के लिए डट कर हर परिस्थितियों का सामना करके भी अपने हक के लिए आवाज उठाना चाहिए.