10 से 12 जनवरी 2025 को शांतिनिकेतन बोलपुर के आमार कुटीर परिसर में आयोजित महिला शिविर में मुझे भाग लेने का मौका मिला. तय कार्यक्रम के अनुसार शिविर का पहला सत्र परिचय का रखा गया था. इस सत्र में प्रतिभागियों को अपने परिचय में यह बताना था कि वे महिला आंदोलन से कैसे जुड़ी, उनके सामने क्या चुनौतियाँ थीं, या है, आज उनकी प्राथमिकताएँ क्या हैं, उनकी समस्याएँ क्या हैं और भी बहुत कुछ जो वे अपने बारे में बताना चाहती हैं.

इस आयोजन में पश्चिम बंगाल, झारखंड, बिहार, महाराष्ट्र, दिल्ली और उत्तर प्रदेश से आई महिलायेँ शामिल थीं. ये सभी महिलाएं जीवन में कुछ नया गढ़ने, कुछ नया बनाने की कोशिश में लगी थीं. महिलाओं ने अपने परिचय में, अपने जीवन की समस्याओं के बारे में सभी के सामने खुल कर बात रखी. वैसे तो उन सभी के जीवन के संघर्ष, जिंदगी जीने की जद्दोजहद, रूढ़ियों को तोड़ने, पितृ सत्ता से टकराने की बातें प्रेरणादायी थीं, लेकिन शिविर में शामिल कई महिलाएं ऐसी थी जिनकी आप-बीती बहुत प्रभावित करने वाली थी. मुझे झारखंड के हजारीबाग, गिरिडीह, गढ़वा से आई एकल महिलाओं के संघर्ष की बातें बहुत ही प्रेरणादायी लगी थी. “अकेले हैं, तो क्या डर है”, की पंक्तियाँ चरितार्थ करती दिखती थीं. ये महिलाएं विधवा थी, परित्यकता थीं, अविवाहित थी, और समाज के अत्याचारों को अकेली झेल रही थीं. आरंभ में ये अपने समाज, अपने परिवार से अलग हो बिलकुल अकेली पड़ गई थीं, लेकिन अब वे सभी मिल कर, आपस में एक दूसरे का आत्म विश्वास बन रही हैं. अपनी जिंदगी को विपरीत हवा में भी जिंदादिली से जीना अब इन महिलाओं ने आपसी सहयोग से सीख लिया है. आज वे सभी खुश हैं, आजाद है, मिल जुल कर संघर्षरत हैं.

हम सभी अपने समाज में विधवाओं की समस्याओं को जानते हैं, लेकिन उसे झेल रही महिलाओं ने जब अपनी बात कही तो आँखों में पानी आ जा रहा था. कमाल की बात यह थी कि ये महिलाएं बुलंद होने के साथ ही जीवंत थीं. सदा ही मस्ती में नाचने, गाने, को तत्पर रहती थीं. सभी विषयों में उनकी भागीदारी, महिलाओं की समस्याओं की समझ, उनकी परिपक्वता को दिखला रहा था.

एकल महिला की लीलावती ने जब बताया कि विधवा होने के बाद एक तो उनका पति जाता है, उसका दुख होता है, आर्थिक आधार खत्म होने का डर सताता है, लेकिन जब उनकी चूड़ियाँ तोड़ी जाती है, उनके कपड़ों में बदलाव लाया जाता है, उनको देखने का लोगों का नजरिया बदलने लगता है, उनकी निगाहों में एक हिकारत झलकने लगती है, उनके व्यवहार में बदलाव आने लगती है, उन्हें अपशकुन माना जाने लगता है, तो समाज का यह व्यवहार उन्हें बहुत तोड़ता है. यह किसी भी इंसान के आत्म विश्वास को खत्म कर देता है. बगैर कोई गलती के जिंदगी अभिशाप लगने लगती है.

ऐसी ही कहानी उन सभी महिलाओं की थी. यह सब बताती लीलावती कहीं से भावुक नहीं हो रही थी, बल्कि उसकी बातों से, उसके जीवन के संघर्ष से उपजा आत्मविश्वास झलक रहा था.

एक दूसरी महिला थी भाबनी, जिसकी कहानी एक अलग ही संघर्ष की गाथा है. वो वहीं बोलपुर, शांति निकेतन में ही रहती हैं जिनके द्वारा बनाए गए बैग हम सभी को शिविर में निबंधन के समय मिले थे. कपड़े के उस बैग की कलाकारी उत्कृष्ट थी, जिसमें शांति निकेतन की एक छाप, एक पहचान दिखाई देती है. वो बहुत शांत रहती थी, एक कोने में लगातार बैठी, लोगों की बाते सुनती रहती थी.

मनीषा ने मुझे बताया कि ये लोग कोलकता के हैं और वहाँ से यहाँ भाग कर आए हैं. उसके भाई को वहाँ किसी इल्जाम में पुलिस पकड़ कर ले गई थी, और वह उसके बाद लौट कर कभी घर नहीं आया. भाबनी का परिवार अपने घर के बेटे का, जिसे पुलिस पकड़ कर ले गई थी, इंतजार करता रहा, लेकिन वह या उसकी लाश लौट कर नहीं आया. आस पड़ोस के लोग भी कटाक्ष किया करते थे. ये लोग बहुत डर गए थे, जीवन असुरक्षित लगने लगा था. वह परित्यक्ता थी तो पिताजी, भाई के साथ ही रहती थी. इस घटना के बाद वह अपने पिता के साथ कोलकाता से बोलपुर आ गई. यहाँ कपड़े की सिलाई कर और छोटे मोटे काम कर किसी तरह अपना गुजारा कर रही है. वह डरी नहीं, जीवन को अपने संघर्ष से आगे बढ़ाया. अब पिता जी भी नहीं रहे, इस कारण वह यहाँ एकदम अकेली हो गई है. उसके जीवन के इन संघर्षों के बारे में सुन कर लगा, हम सभी अकेले-अकेले ही सही अपने जीवन को जीने की तलाश में लगे हैं. कभी कोई साथ मिल जाता है, तो कभी कोई छूट जाता है.
ये छोटी सी लगने वाली बात, बड़े संघर्ष का एक हिस्सा होती है, जो हमें अपने जीवन को समझने, सँवारने, संभालने में सदा ही सहयोग करती है.