विगत दिनों छत्तीसगढ़ के सुकमा में माओवादियों के द्वारा सीआरपीएफ के 26 जवानों की निर्मम हत्या के बाद नक्सलवाद का मुद्दा एक बार फिर से राष्ट्रीय फलक पर वापस आ गया है। देश का मध्यवर्ग एवं उच्च मध्यवर्ग सिर्फ ‘सैन्य अभियान’ को नक्सलवाद की समस्या का समाधान मान बैठा है इसलिए इस बार भी बस्तर में सेना के द्वारा बंदूक की गोली, बम और गोला-बारूद बरसाने के लिए सरकार पर दबाव बनाने की पूरी कोशिश हुई। लेकिन मौलिक प्रश्न यह है कि क्या नक्सलवाद को राजकीय हिंसा से खत्म किया जा सकता है? नक्सलवाद, आंध्रप्रदेश और बिहार के दलित बस्तियों से तो खत्म हो गया लेकिन अब यह जंगलों के मध्य में रहने वाले आदिवासियों के गांवों में विराजमान हो चुका है। ऐसा क्यों है कि यह समस्या एक राज्य में खत्म हो जाती है और दूसरे राज्य की मूल समस्या बन जाती है? क्यों कुछ लोग बीहड़ जंगलों में, मच्छड़ों से जुझते हुए, भूखे-प्यासे अपनी जान हथेली पर लेकर राजसत्ता के खिलाफ बंदूक उठाये हुए हैं? आखिर उनके लिए इतना प्रेरणा कहां से मिल रही है?

हमें यह समझना चाहिए कि नक्सलवाद कानून-व्यवस्था की समस्या नहीं है बल्कि यह एक राजनीतिक विचारधारा है जिसे राजकीय हिंसा से खत्म नहीं किया जा सकता है। आप बंदूक से उस विचारधारा में जीने वाले व्यक्ति को तो मार सकते हैं, लेकिन विचारधारा को नहीं।यह राजनीतिक विचारधारा तबतक जिंदा रहेगा जबतक उसे जड़ से उखाड़ कर फेंक नहीं दिया जाता है। यह विचारधारा एक इलाका से दूसरे इलाका में घूमता रहता है। हो सकता है कि आज बस्तर में सेना के द्वारा बंदूक की गोली, बम और गोला-बारूद बरसाने पर नक्सलवाद वहां खत्म हो जाये, लेकिन आनेवाले समय में यह आंदोलन यदि शहरों में शुरू हो गया तब क्या होगा? क्या सरकार फिर से शहरों में बंदूक की गोली, बम और गोला-बारूद बरसायेगी? राजसत्ता को यह समझना होगा कि नक्सलवाद की जड़े कहां है, क्यों हैं और क्यों मजबूत हो रही हैं? क्या राजसत्ता ही तो इसके लिए दोषी नहीं है?

आजादी के बाद संविधान निर्माण के समय संविधानसभा में बहस करते हुए जयपाल सिंह मुंडा ने आदिवासियों के मुद्दों को गंभीरता से उठाया तथा उनके लिये देश के अंदर ही स्वायत्तता की मांग की। इस पर देश के प्रथम प्रधानमंत्री जवाहरलाल नेहरू ने आदिवासियों को न्याय देने का वादा किया तथा गृहमंत्री बल्लभभाई पटेल ने जयपाल सिंह मुंडा से कहा कि अगले दस सालों के अंदर देश से आदिवासी शब्द खत्म हो जायेगा। उनके कहने का अर्थ यह था कि भारत में संविधान लागू होने के एक दशक के अन्दर आदिवासियों को सामाजिक, आर्थिक एवं राजनीतिक न्याय मिलेगा तथा देश में विराजमान गरीबी-अमीरी, उंच-नीच एवं जात-पात का भेद-भाव खत्म हो जायेगा। फलस्वरूप, देश का कोई भी व्यक्ति स्वयं को असहाय, कमजोर या हाशिये पर पड़ा हुआ नहीं समझेगा। लेकिन हुआ ठीक इसके विपरीत। जातीय व नस्लीय भेदभाव से ग्रसित तथाकथित उच्चवर्ग से उपजे शासकों ने मिलकर संविधान, कानून और नीतियों को ताक पर रख दिया। फलस्वरूप, आजादी के आंदोलन में सबको रोटी, कपड़ा और मकान देने तथा भूमि सुधार का वादा हाशिये पर चला गया, जिसने नक्सलवाद को जन्म दिया।

यह राजसत्ता को पता है कि आदिवासियों के साथ ऐतिहासिक अन्याय हुआ है। 1764 में बक्सर का युद्ध जीतने के बाद अंगे्रेजों ने 1765 में बंगाल, बिहार एवं उड़िसा की दीवानी अधिकार यानी लगान वसूलने का अधिकार हासिल कर लिया। इसके बाद देश में स्थायी बंदोबस्ती कानून 1793, वन कानून 1865 एवं भूमि अधिग्रहण कानून 1894 लागू कर आदिवासियों को उनकी जमीन, जंगल, पहाड़, जलस्रोत एवं खनिज से बेदखल कर दिया गया। इतना ही नहीं आदिवासियों को अपराधिक समूह घोषित कर उनके उपर अत्याचार किया गया। आदिवासियों ने अंग्रेजों के खिलाफ संघर्ष कर अपनी जमीन, स्वायत्तता, संस्कृति एवं परंपरा की रक्षा के लिये कानून बनवाया तथा देश की आजादी में महत्वपूर्ण भूमिका निभायी।

लेकिन भारत की आजादी के बाद उनके खिलाफ राज्य प्रयोजित हिंसा, दमन, अत्याचार, अन्याय और विकास के नाम पर उनके संसाधनों की लूट जारी है। आज नक्सलवाद को खत्म करने के नाम पर किये जा रहे राज्य प्रयोजित हिंसा पर बात करने वालों को देशद्रोही मान लिया जाता है।सुरक्षा बलों के द्वारा हजारों निर्दोष आदिवासियों की हत्या, सैंकड़ों आदिवासी लड़की/महिलाओं का बलात्कार एवं हजारों आदिवासियों को प्रताड़ित किया जा रहा है। पिछले सात दशकों में देश के विकास के लिए आदिवासियों ने सबसे ज्यादा जमीन दिया है लेकिन उनका विकास क्यों नहीं हुआ? झारखंड के जमशेदपुर में टाटा कंपनी स्थापित होने से पहले वहां 95 प्रतिशत आदिवासी हुआ करते थे जो घटकर आज मात्र 5 प्रतिशत बच गये हैं। पूरे देश में विकास के नाम पर लगभग 2 करोड़ 40 लाख आदिवासी पुनर्वास के बगैर विस्थापित किये गये। इसके बावजूद, आज आदिवासियों को विकास विरोधी और नक्सली कहा जाता है।

आज मुख्यधारा के बहसों में ऐसा बताया जाता है कि आदिवासी लोग नक्सली हैं, जो देश का विकास नहीं चाहते हैं और राजसत्ता के खिलाफ बंदूक उठाये हुए हैं। आदिवासी पहचान को नक्सलवाद के रूप में स्थापित कर दिया गया है। जबकि हकीकत यह नहीं है। नक्सल आंदोलन से मात्र 1 प्रतिशत आदिवासी जुड़े हैं। इसलिए राजसत्ता पर बैठे लोगों को समझना चाहिए कि नक्सलवाद और आदिवासी एक दूसरे के पर्याय नहीं हैं। हकीकत यह है कि जितने आदिवासी लोग नक्सल आंदोलन से जुड़े हैं उससे कहीं 10 गुना ज्यादा आदिवासी लोग राज्यों के पुलिस, अर्द्धसैनिक बल और भारतीय सेना से जुड़कर देश की सेवा कर रहे हैं तथा अलबर्ट एक्का से लेकर हजारों आदिवासी जवान देश के लिये शहीद हो चुके हैं लेकिन इस सच्चाई पर कभी कोई चर्चा ही नहीं होती है। क्या आदिवासियों के शहादत की कोई कीमत नहीं है? आदिवासियों की हत्या, बलात्कार और अत्याचार पर यह देश क्यों चुप हो जाता है?

सीआरपीएफ के पूर्व डीजी दिलीप त्रिवेदी ने कहा था कि कुछ राज्य नक्सलवाद को खत्म नहीं करना चाहते हैं ताकि उन्हें केन्द्र सरकार से पैसा मिलता रहे। उनका दावा पुख्ता है। झारखंड एवं छत्तीसगढ़ के नक्सली पुनर्वास नीति की जमीनी हकीकत क्या बताती है? पिछले दिनों इन राज्योंमें सरेंडर नक्सलियों की संख्या बढ़ाने के लिए बेगुनाह लोगों को फर्जी नक्सली बनाकर सरेंडर करवाया गया। इसमें झारखंड में 514 एवं छत्तीसगढ़ में 277आदिवासियों को फर्जी नक्सली बनाकर सरेंडर करवाया गया तथा इन लोगों को मिलने वाली राशि पुलिस आॅफिसर मिलकर गटक गये। इसी तरह सेक्यूरिटी रिलेटेड एक्सपेंडिचर फंड में झारखंड में 8 करोड़ रूपये का दुरूपयोग किया गया तथा आई.ए.पी. योजना के तहत नक्सल प्रभावित प्रत्येक जिलों को प्रतिवर्ष मिलने वाला 30 करोड़ रूपये का विकास कहां दिखता है?

यदि हम नक्सल प्रभावित इलाकों के लिए बनाये गये विशेष विकास योजनाओं का मूल्यांकन करें तब भी निराशा ही हाथ लगती है। झारखंड के सारंडा विकास योजना एवं सरयु विकास योजना की स्थिति क्या बताती है? सारंडा वनक्षेत्र में 10 स्थायी पुलिस कैम्प बनाये गये, लेकिन सारंडा विकास योजना के तहत बनने वाले 10 समन्वित विकास केन्द्र, 5 आवासीय विद्यालय, 6 वाटर सेड परियोजना, मोबाईल हेल्थ यूनिट एवं 5 पब्लिक ट््रस्र्पोटेशन यूनिट का आज तक कहीं अता-पता नहीं है। यह दर्शाता है कि सरकार लोगों के विकास को लेकर जमीनी स्तर पर कितना प्रतिबद्ध है। क्या हम यह नहीं कह सकते है कि राजसत्ता पूर्णरूप से असफल हैं क्योंकि उसे आदिवासियों के साथ कोई लेना देना ही नहीं है बल्कि उसे तो बस काॅरपोरेट को सौंपने के लिये आदिवासियों से प्राकृतिक संसाधन छीनने पर रूचि है।

केन्द्र की पिछली सरकार ने देश में नक्सवाद को खत्म करने के लिए दो महत्वपूर्ण रणनीतिक कदम उठाया था - पुलिसिया कार्रवाई एवं नक्सल प्रभावित क्षेत्रों का विकास। लेकिन यह रणनीति बहुत कारगार साबित इसलिए नहीं हुई क्योंकि नक्सलवाद की जड़ में अन्याय है, जिसका समाधान इस रणनीति के हिस्से में नहीं था। आजादी से लेकर अबतक आदिवासियों के खिलाफ जारी राजकीय हिंसा, काॅरपारेट को मुनाफा पहुंचाने के लिए ‘विकास एवं आर्थिक तरक्की के नाम पर किया जा रहा प्राकृतिक संसाधनों जमीन, जंगल, पहाड़, जलस्रोत एवं खनिज की लूट, आदिवासियों के हितों में बने संवैधानिक प्रावधान, कानून एवं नीतियों का उल्लंघन, नक्सलवादियों के खिलाफ कार्रवाई करते समय आदिवासी एवं खनन कंपनियों के साथ दोहरा रवैया तथा आदिवासियों के विकास के लिए आवंटित राशि की लूट ही नक्सलवाद की जड़ों को मजबूत बनाने का काम कर रहा है।

इसलिए नक्सलवाद को खत्मकरने के लिए आदिवासियों को बंदूक, बम और गोला-बारूद का भय दिखाने के बजाये नक्सली क्षेत्रों में रहने वाले प्रत्येक व्यक्ति के दुःख-दर्द को सुनना, उनके साथ अच्छे से पेश आना तथा उनके समस्याओं का समाधान निकालना होगा। लेकिन इसके लिए सबसे पहले आदिवासी इलाकों में राजकीय हिंसा, अत्याचार व दमन तत्काल बंद करना होगा, राज्य सरकारों के द्वारा काॅरपोरेट घरानों के साथ किये गये एम.ओ.यू. को रद्द करते हुए आदिवासियों की जमीन, जंगल एवं जलस्रोत उन्हें वापस कर दिया जाना चाहिए तथा उनकी बची-खुची जमीन, जंगल, पहाड़, जलस्रोत एवं खनिज को लूटना बंद करना होगा, इसके साथ आदिवासियों के हितों की रक्षा के लिए बनाये गये संवैधानिक प्रावधान, कानून एवं नीतियों को सख्ती से लागू करना होगा, नक्सलियों को मद्द करने वाले बड़ी शक्तियों पर कार्रवाई करना होगा और आदिवासियों के विकास एवं कल्याण के लिए आवंटित राशि को उनके पास ईमानदारी से पहुंचाना होगा। इसके अलावा सरकारी संस्थानों - विद्यालय, स्वास्थ्य केन्द्र, को गतिशील बनाना और सरकारी विकास एवं लोक कल्याणकारी योजनाओं को समयबद्ध तरीके से जमीन पर लागू करना होगा। लेकिन क्या राजसत्ता इसके लिए तैयार होगा?