23 नवम्बर, 1920, को आगरा में मौलाना अबुल कलाम आजाद की अध्यक्षता में विशाल आम सभा हुई। गांधीजी तथा अन्य लोग सभा-स्थल पर एक जुलूस में ले जाये गये, जिसमें दो घंटे लग गये। जुलूस के साथ बैंड था और रास्ता भी खूब सजाया गया था। उस सभा में गांधीजी ने भाषण का प्रारम्भ हाल में आगरा में हुए हिंदू-मुस्लिम दंगों के उल्लेख से किया और अधिकारियों की मध्यस्थता के बिना ही विवाद सुलझाने के लिए जनता को बधाई दी। उन्होंने कहा कि मुझे अनुशासनहीन सभा देखकर दुख होता है, क्योंकि उससे स्वराज्य प्राप्त नहीं हो सकता।
उन्होंने कहा कि जुलूस से समय नष्ट होता है और बड़ी सभाओं से वह उद्देश्य पूरा नहीं होता जिसके लिए उनका आयोजन किया जाता है। इन दोनों में ही समय नष्ट होता है। शायद मुझे यह व्रत लेना पड़े कि मैं जुलूसों में नहीं जाऊंगा और बड़ी सभाओं में भाषण नहीं दूंगा।
भारत जलियांवाला बाग में मारे गये 1500 लोगों के लिए शोक मना रहा है। शोक के समय संगीत और जुलूस का विचार मुझसे सहन नहीं हो सकता। उन्होंने इस बात पर खेद व्यक्त किया कि सजावट और झंडियों आदि में विदेशी कपड़े और विदेशी वस्तुओं का इस्तेमाल किया गया है और रोशनी में विदेशी मोमबत्तियों और लैम्पों का। खिलाफत के मामले में जो अन्याय हुआ है उसे दूर कराने या स्वराज्य प्राप्त करने में इन तरीकों से कोई मदद नहीं मिलेगी।
उन्होंने कहा कि मैं केवल विद्यार्थियों के बीच भाषण देने आया हूं और शीघ्र ही जहां ठहरा हूं वहां चला जाऊंगा; उस सभा में केवल विद्यार्थी ही शरीक हो सकेंगे। उन्होंने कहा कि मैं इस सरकार को शैतान की सरकार मानता हूं और मेरा विश्वास है कि यदि लोग सच्चाई पर रहें और नेक आचरण करें तो एक साल में स्वराज्य मिल सकता है। सरकार मुझे पागल कहती है, परंतु मैं जानता हूं कि मैं पागल नहीं हूं। मैं इस धूर्त सरकार से सच्चाई से निपटूंगा। (वाइसराय लॉर्ड चैम्सफोर्ड ने गांधीजी की असहयोग योजना को ‘मूर्खतापूर्ण योजनाओं में सबसे अधिक मूर्खतापूर्ण योजना’ बताया था।) (खंड 22)
दलित वर्ग और हिंदू-मुसलमान
गुजरात विद्यापीठ की सीनेट में कोई मुसलमान सदस्य नहीं था। इसे अखबारों ने सनसनीखेज खबर के रूप में छापा। गांधीजी ने ‘यंग इंडिया’ (24-11-1920) में लिखा - “यह बात विद्यापीठ के स्वरूप में राष्ट्रीयता के अभाव का प्रभाव नहीं है। हिंदू-मुस्लिम एकता केवल कहने-भर की बात नहीं है। इसके लिए किसी बनावटी सबूत की जरूरत नहीं है। सीनेट में कोई मुसलमान प्रतिनिधि न होने का सीधा-सा कारण यही है कि राष्ट्रीय शिक्षा-आंदोलन में दिलचस्पी लेने वाला कोई ऐसा उच्च शिक्षा प्राप्त मुसलमान नहीं मिला, जो इस काम के लिए अपना समय दे सकता। मैं इस बात का उल्लेख सिर्फ यह दिखाने के लिए कर रहा हूं कि इस आंदोलन को लांछित करने के लिए, हमारे उद्देश्यों का गलत अर्थ तक लगाकर किये जा रहे प्रयत्नों से निपटने के लिए हमें तैयार रहना चाहिए। यह एक सतही कठिनाई है और इससे आसानी के साथ निपटा जा सकता है।
‘दलित वर्गों’ की समस्या हमारे उद्देश्य का एक महत्वपूर्ण अंश है। दलित वर्गों के साथ जो अन्याय होता आया है उसका पूरी तरह मार्जन किये बिना स्वराज्य की कल्पना उसी प्रकार असम्भव है, जिस प्रकार सच्ची हिंदू-मुस्लिम एकता के बिना। मेरी राय में हमारी स्थिति साम्राज्य में जो अछूतों और अति शूद्रों-जैसी हो गई है उसका कारण यही है कि हमने खुद अपने बीच अछूतों और अति शूद्रों का एक वर्ग बना रखा है। गुलाम के मालिक को हमेशा गुलाम से कहीं ज्यादा क्षति उठानी पड़ती है। जब तक हम भारत की जनता के पांचवें भाग को गुलामी में रखेंगे तब तक हम स्वराज्य पाने के योग्य नहीं होंगे। जिन्हें हम शूद्र कहते हैं, क्या हमने उन्हें पेट के बल नहीं चलाया है? क्या हमने उन्हें शेष समाज से अलग नहीं रखा है? और यदि ‘शूद्र’ के साथ ऐसा व्यवहार करना धर्म है तो फिर हमें अलग रखना गोरी जाति का धर्म है। और यदि गोरी जातियों का यह कहना कि हम अपनी हीनावस्था से संतुष्ट हैं, ठीक नहीं है तो हमारा भी यह कहना ठीक नहीं है कि ‘दलित जातियां’ अपनी अवस्था से संतुष्ट हैं। जब हम गुलामी को प्यार करने लगते हैं तब वह मानो अपनी चरमावस्था को पहुंच जाती है।
अगर हम स्वराज्य का पवित्र फल पाना चाहते हैं तो हम इन सड़ी-गली प्रथाओं से नहीं चिपटे रह सकते। मेरा स्पष्ट मत है कि अस्पृश्यता की प्रथा एक रिवाज-मात्र है, हिंदू धर्म का अभिन्न अंग नहीं है। विचार के क्षेत्र में दुनिया काफी आगे बढ़ी है, यद्यपि कर्म से वह अब भी बर्बर है। कोई भी धर्म ऐसी किसी चीज को, जो मूल सत्यों पर आधारित नहीं है, मान्यता नहीं दे सकता। जो चीज गलत है, उसे अगर हम अच्छा बतायें तो उससे धर्म का नाश उतना ही निश्चित है जितना रोग की उपेक्षा से शरीर का नाश।