वर्ण व्यवस्था पर आधारित हमारे समाज में सफाई में लगे ये कौन लोग हैं, हमे अच्छी तरह पता है. शायद यह सोच यहां भी काम कर रही है कि इनकी सुरक्षा की विशेष व्यवस्था की जरूरत नहीं. बिना किसी सुरक्षा के सीवरों की सफाई के लिए जब इन लोगों को मौत के मुंह में डाल सकते हैं, तो वहीं संवेदनहीनता यहां भी दिख रही है.
कोरोना वाईरस की भयावहकता के बीच हमारे प्रधानमंत्रीजी का संदेश आता है. कोरोना से बचने के उपायों के साथ-साथ उन्होंने जनता से 22 मार्च रविवार को कहीं न निकलने का आग्रह किया. सुबह सात बजे से नौ बजे तक घर में रहने की सिफारिश की. रविवार के दिन इस जनता कर्फयू को अमल में लाने में कोई विशेष दिक्कत तो नहीं ही हुई, पांच बजे अपने-अपने घरों के बरामदों में निकल कर ताली या थाली बजा कर कोरोना से पीड़ित लोगों की रक्षा में लगे डाक्टर नर्स, अस्पताल के दूसरे कर्मचारी तथा सफाई कर्मचारियों को आभार प्रकट करने की सिफारिश भी की गयी थी. लोगों ने प्रधानमंत्री को पवित्र भाव से सुना और अमल किया भी, लेकिन शाम के पांच बजे वाले नाटक का क्या औचित्य है, हमें समझ में नहीं आता. क्योंकि हमारे देश में अभी कोरोना का वैसा प्रकोप नहीं, जैसा दुनियां के अन्य देशों में हैं. यह सरकारी आंकड़ेे ही बता रहे हैं.
दूसरी तरफ हमारे देश में अभी तक पूरी तरह शटडाउन भी नहीं हुआ है. रविवार का जनता कर्फू केवल मौक कर्फू ही है. हम हमेशा डाक्टर, नर्स तथा अस्पतालों के प्रति आभारी रहे हैं. खास कर सफाई कर्मचारियों के प्रति आभारी हैं, जो मात्र मुंह में एक पट्टी बांध कर हर उस जगह को रगड़-रगड़ कर कोरोना का सफाया करने में लगे हैं जहां से इस वायरस के फैलने का डर है. क्या इन लोगों के पूरे शरीर के लिए खास पोशाक की जरूरत नहीं है? वर्ण व्यवस्था पर आधारित हमारे समाज में सफाई में लगे ये कौन लोग हैं, हमे अच्छी तरह पता है. शायद यह सोच यहां भी काम कर रही है कि इनकी सुरक्षा की विशेष व्यवस्था की जरूरत नहीं. बिना किसी सुरक्षा के सीवरों की सफाई के लिए जब इन लोगों को मौत के मुंह में डाल सकते हैं, तो वहीं संवेदनहीनता यहां भी दिख रही है.
जनता तो अपना दायित्व निभाती है, क्योंकि उसे अपने प्रजातंत्र में विश्वास है और अपनी चुनी हुई सरकार पर भी विश्वास है. कोरोना से संक्रमित लोगों की संख्या लगातार बढ़ रही है. हर दिन हमें उनकी संख्या बतायी जा रही है, लेकिन सरकार स्पष्ट रूप से इस बात का खुलासा नहीं कर रही है कि हर राज्य राज्य में अस्पतालों, डाक्टरों, नर्सों, दवाईयां तथा दूसरी तरह की सुविधाओं की क्या व्यवस्था है और कितनी है. मरीजों की संख्या बढ़ने पर वह पर्याप्त होगी या नहीं. हमारी जन संख्या का लगभग 30 फीसदी लोग ऐसे हैं जो दिहाड़ी पर काम करने वाले हैं. उनके पास घर में बैठने का अवकाश नहीं. यदि सभी आर्थिक काम रूक जाये तो ऐसे लोग सबसे पहले प्रभावित होंगे. इनके लिए क्या सरकारी प्रयास हो रहे हैं, स्पष्ट नहीं.
जनता से घरों में रहने का आग्रह किया जा रहा है, लेकिन नेतागण राजनीकि उठा पटक में लगे हुए हैं. इन्हें कोरोना वाईरस को कोई डर नहीं, क्योंकि वे सेनेटाईज्ड लोकसभा तथा विधान सभाओं में मुंह पर पट्टी बांध कर जन कल्याण की जगह राजनीति करेंगे. सरकारें गिराने की साजिश रचेंगे. करोड़ों रुपयों का वारे न्यारे करेंगे. बैंकों का दिवाला निकालेंगे. फाईव स्टार होटलों का मुफ्त में लुफ्त उठायेंगे. यह है हमारे जन प्रतिनिधियों का असली चेहरा जो इस विषम परिस्थितियों में भी दिखाई दे रहा है. जनता के द्वारा चुने जाने के बावजूद इन्हें यह अधिकार कहां से मिल जाता है कि वे जनता की सहमति के बिना ही दल बदल कर सरकारें गिरा दें? इस राजनीतिक भ्रष्टाचार का दुष्परिणाम करोना से भी ज्यादा घातक है जो दिखता नहीं, लेकिन पूरी लोकतांत्रिक व्यवस्था को ही खत्म कर देता है. मध्य प्रदेश में कांग्रेस सरकार को गिरा कर अपनी सरकार बनाने का बीजेपी ने जो विद्रूप खेल खेला है, वह लोकतंत्र के लिए शर्म की बात है ही, जनता के प्रति अन्याय भी है.
इस जन आपदा के समय सरकार केवल जनता के साथ होने का नाटक कर रही हैं, मास्क तथा सेनेटाईजर जैसे चीजों के मूल्यों को भी नियंत्रित नहीं कर पायी है. पांच रुपये के साबुन को खरीदने में असमर्थ आदमी सौ रूपये का सेनेटाईजर कहां से खरीदेगा. लोगों को बार-बार हाथों को सेनेटाईज करने का आग्रह करना केवल नकली सहानुभूति है. व्यापारी, व्यावसायी, उत्पादक को लाभ पहुंचाना असली मकसद है.
ऐसे समय में सरकार रामनवमी के जुलूसों पर रोक नहीं लगा पा रही है. लाखों रुपये खर्च कर उपद्रव मचाने वाले इन जुलूसों को इस बार कोरोना से बचाने के लिए छोटे पैमाने पर करने की सलाह दे रही है. हो सकता है मुंह पर पट्टियां बांध कर जुलूस निकाले जायें. उन्हें अब तक यह समझ नहीं आया कि जुलूस निकालने की जगह कोरोना से बचने का उपाय करने से अपना तथा दूसरों का भला कर सकेंगे और भगवान राम को भी प्रसंन्न कर लेंगे. मस्जिद गिरा कर मंदिर बनाने के प्रयास की जगह अस्पताल बनाये जाते तो ऐसे आड़े समय में लोगों का भला होता. हम तो ऐसे कुशल भी नहीं हैं कि चीन की तरह एक सप्ताह में अस्पताल खड़ा कर दें और हजारों मरीजों का इलाज कर लें.
कठिन समय है. इसका एहसास केवल जनता को हो और सरकारें अपनी टुच्ची राजनीति में लगी रहे और लोगों को मूर्ख बनाये, यह वांक्षनीय नहीं है.