दूसरे देशों से आये हिंदू शरणार्थियों की चिंता इन्हें बहुत रहती है, लेकिन भूखें प्यासे, पैदल चलते उन गरीबों का कोई ध्यान नहीं. दर्जनों रास्ते के अकल्पनीय कष्टों को झेलते मर गये. कही उन्हें सड़कों पर बिठा कर उन पर दवाओं का छिड़काव किया गया, तो कही झुंड के झुंड जानवरों की तरह हांक कर किसी सरकारी स्कूल आदि में बंद कर रखा गया.
हमारे देश में जनता के प्रतिनिधि जनता के वोटों से जीत कर विधान सभाओं और लोकसभा में पहुंचते हैं. सांसद, विधायक, मंत्री, मुख्यमंत्री और प्रधानमंत्री बनते हैं. भव्य इमारतों में बैठ कर सरकार चलाते हैं और शानदार सरकारी आवासों में रहते हैं. वहां जा कर वे यह भूल जाते हैं कि देश में अधिकतर लोग बालकोनीयुक्त घरों में ही नहीं रहते, गांवो, कस्बों तथा झुग्गी—झोपड़ियों में रहते हैं. उन्होंने भी अपना वोट देकर उन्हें जिताया है. वे 30 प्रतिशत लोग, जिनके पास खाने के लिए पर्याप्त अन्न नहीं है, न रहने के लिए घर और न निश्चित आय. एक प्रजातंत्र का हिस्सा होने के नाते वे अपना वोट देते हैं और यह आशा रखते हैं कि सरकार उन्हें रोजी रोटी देगी, उनके बच्चों की शिक्षा की व्यवस्था करेगी और उनके स्वास्थ की भी देख भाल करेगी.
लेकिन चुन कर जाते ही इन जन प्रतिनिधियों की सारी नीतियां बालकोनी वाले लोगों के लिए ही हकीकत में बनने लगती है. मोटी फीस लेकर चलने वाले प्राईवेट स्कूल और पांच सितारा हास्पीटल उनकी प्राथमिकता में होते हैं. ऐसा इसलिए होता है क्योंकि वे 30 प्रतिशत लोग केवल वोट देने के लिए होते हैं. उसके बाद वे अपने गांव घर को छोड़ कहीं भी जाकर खटकर खाने के लिए मजबूर हैं. सरकार को इनकी चिंता करने की जरूरत नहीं होती है. उनके बच्चे पढ़े या न पढ़े, कुपोषण और अस्वस्थता कर शिकार होकर मर भी जाये तो विशेष चिंता की बात नहीं होगी, क्योंकि इससे देश की जीडीपी में कोई अंतर पड़ने वाला नहीं है.
यही कारण है कि कोरोना वायरस के फैलते ही सरकार की स्वास्थ व्यवस्था की पोल खुल गयी जिसे छुपाने के लिए सरकार ने आनन फानन में लॉक डाउन की घोषणा कर दी. एकबारगी लॉक डाउन की घोषणा करने वाले प्रधानमंत्री ने यह नहीं सोचा कि अपने गांव से दूर पलायन कर नौकरी करने वाले करोड़ों मजदूरों का क्या होगा? छोटे—मोटे उद्योग धंधों और खेतों में लगे मजदूरों को मालिकों ने निकाल बाहर किया. बेघर—बार अन्न जल के अभाव में ये लोग सड़कों पर आ गये और अपने घरों की ओर पैदल ही चल पड़े, क्योंकि सभी प्रकार के संचार माध्यम बंद थे. सरकार चाहती तो पहले इन लोगों के लिए उचित व्यवस्था करने के बाद लॉक डाउन कर सकती थी, लेकिन उसने उनके कष्टों के लिए माफी मांगना ही काफी समझा.
कुव्यवस्था का असली कारण तो यह है कि ये जन प्रतिनिध निरंकुश और परले दर्जे के स्वार्थी होते हैं. उनका पहला काम होता है अपनी कुर्सी बचाये रखना. कोरोना से उत्पन्न आपात स्थिति में जब सरकार का पूरा ध्यान स्वास्थ सेवाओं को बढ़ाने और उसे बेहतर बनाने के लिए होना चाहिए था, वह बैंकों का विलय कर रही थी, जम्मू कश्मीर के डोमेसाईल नीति पर विचार कर रही थी. 70 वर्षों में जो देश सीएए, एनआरसी और एनपीआर के बिना भी चल रहा था और विकास भी कर रहा था, इस सरकार के लिए वे कानून प्रमुख हो गये. दूसरे देशों से आये हिंदू शरणार्थियों की चिंता इन्हें बहुत रहती है, लेकिन भूखें प्यासे, पैदल चलते उन गरीबों का कोई ध्यान नहीं. दर्जनों रास्ते के अकल्पनीय कष्टों को झेलते मर गये. कही उन्हें सड़कों पर बिठा कर उन पर दवाओं का छिड़काव किया गया, तो कही झुंड के झुंड जानवरों की तरह हांक कर किसी सरकारी स्कूल आदि में बंद कर रखा गया.
आलोचना से बचने के लिए इन पैदल चलने वालों को आइसोलेशन के नाम पर कैंपों में रख दिया गया जहां फिर से उनके सामने भूख, गंदगी और बीमारी की समस्या ही रही. इससे ज्यादा व्यवस्था की आशा भी इस सरकार से नहीं की जा सकती है. दूर दृष्टि और स्पष्ट नीति जैसे शब्दों के अर्थ वे नहीं जानते हैं. वे दावा करते हैं कि वे भी गांधीवादी हैं. हर मंच से इसकी उद्घोषणा करते हैं. गांधी के अंतिम जन से उनकी राजनीति शुरु तो होती है, लेकिन चलती है बालकोनी वाले लोगों के लिए. बालकोनी वाले लोगों को ही ताली, थाली या दिया जला कर कोरोना भगाने के टोटके दिये जाते हैं. ये बालकोनी वाले लोग शिक्षित होते हुए भी इन टोटकों पर विश्वास करते हैं, क्योंकि वे अपनी भौतिक परिस्थितियों के कारण कोरोना से सुरक्षित रहते हैं और टोटकों पर विश्वास व्यक्त करके वे अपने उस नेता के प्रति आस्था व्यक्त करते हैं जो उनके लिए बेहतर जीवन स्तर सुरक्षित करता है, साथ ही वे गरीब जनता के मॉडल भी बनते हैं.