अरुंधति राय की पुस्तक ‘आहत देश’ उनके गल्पेतर गद्य-लेखन की श्रृंखला में एक ज्वलंत दस्तावेज है। यह उनके अंग्रेजी शीर्षक ‘ब्रोकन रिपब्लिक: थ्री एस्सेज’ का अनूदित संस्करण है। इस संग्रह के पहले आलेख ‘चिदम्बरम जी की जंग’ (स्वतंत्र आलेख के रूप में अक्टूबर, 2009 में प्रकाशित) को ‘भूमकालः कामरेडों के साथ’ (मार्च, 2010) की पूर्वपीठिका कहा जा सकता है तो अंतिम आलेख ‘साहबी इंकलाब’ (सितंबर, 2010) को इसका उपसंहार।
कुछ आलोचकों के साथ ‘भूमकाल: कामरेडों के साथ’ को एक रिपोर्ताज कहने में कोई आपत्ति तो नहीं है, किंतु मेरा यह भी मानना है कि अट्ठासी पृष्ठों पर अंकित यह यात्रा वृत्तांत एक ऐसा ऐतिहासिक आख्यान है, जिसमें न केवल पढ़ने वाले, बल्कि रचनाकार की भी जीवन-दृष्टि को बदल देने की क्षमता मौजूद है। इसलिए मैं यह भी मानता हूँ कि इस पुस्तक की तटस्थ समीक्षा नहीं की जा सकती। आप इससे या तो सहमत हो सकते हैं या फिर असहमत; यह पढ़ने वाले की मानसिकता पर निर्भर है कि वह इसके पक्ष में हैं या विपक्ष में।
यह लगभग वैसा ही है जैसा कि उनके कुछ आलोचक उन पर यह आरोप लगाते रहे हैं कि वे दुनिया को (लगभग 300 ई0 में हुए पारसी दार्शनिक मानी के नाम पर चलाए गए धर्म-दर्शन) मानीकियन दृष्टि से देखती हैं, जिसमें अच्छे और बुरे के संघर्ष में किसी एक का ही चुनाव किया जा सकता है।
उनका पहला उपन्यास ‘द गॉड ऑफ स्माल थिंग्स’ 1997 में आया था (जिसे मैन बुकर्स पुरस्कार मिला)। तब से उनके पाठकों और प्रकाशकों को उनके दूसरे उपन्यास की प्रतीक्षा रही थी। लेकिन उस बीच स्थितियाँ शायद इतनी भयानक हो गईं कि इनसे आँखें चुराकर गल्प के मजे लेना उनके लिए मुश्किल महसूस होने लगा (वे उपन्यास को नृत्य कहती हैं जबकि अपने पॉलेमिक लेखन को पैदल चलना)। आज का यथार्थ अपेक्षाकृत इतना मारक और दारुण रूप से चकित और चीख पैदा करने वाला हो चुका है कि वंचितों, दबे और कुचले गए लोगों के बीच जाकर उनके दुखों-संघर्षों पर शोध करना और उसे सीधे-सीधे न कहकर कहानियों एवं उपन्यासों में ढालना भले कुछ (और खासकर हिंदी) लेखकों के लिए अद्वितीय कला का रूप हो, अरुंधति राय के सोच का संसार कुछ और है।
वे पुस्तक के पहले ही अध्याय में भारत के तत्कालीन गृहमंत्री चिदम्बरम को निशाना बनाती हुई उन पर आरोप लगाती हैं, कि ‘‘हम इस तथ्य का क्या मतलब निकालें कि ऑपरेशन ग्रीन हंट के प्रमुख कार्याधिकारी और हमारे गृहमंत्री पी. चिदम्बरम कारपोरेट वकील के रूप में अनेक खनिज निगमों के हितों के प्रतिनिधि रहे हैं। हम इस तथ्य का क्या मतलब निकालें कि जिस दिन 2004 में उन्होंने मंत्रिमंडल में वित्त मंत्री के रूप में शपथ ली, उसी दिन उन्होंने वेदांत के गैरकार्यकारी निदेशक पद से इस्तीफा दिया था।’’
यहाँ ध्यान देने की जरूरत है कि वेदांत वह कंपनी है जिसको उड़ीसा की नियमगिरि पहाड़ी से बाक्साइट निकालने का अधिकार दिया गया है। यह वही पहाड़ी है जिसे वहाँ के आदिवासी कोंड लोग अपना भगवान मानते हैं और उसकी पूजा करते हैं और इसीलिए यह भी मानते हैं कि उन्हें अपने घरों और अपनी जमीन और अपने भगवान को बचाने का पूरा हक है; और यह अधिकार न केवल पारंपरिक है बल्कि संविधान-प्रदत्त भी है।
वे लिखती हैं कि ‘आदिवासियों की भूमि का (जहाँ सबसे अधिक खनिजों की भारी मात्रा है) अनिवार्यतः अधिग्रहण करना और उसे निजी खनन कंपनियों के हवाले करना पंचायत (अनुसूचित क्षेत्रों तक विस्तारित)अधिनियम (पेसा) के अंतर्गत गैरकानूनी और असंवैधानिक है।’ इस पेसा (1996) के अंतर्गत पूरे भारत में आदिवासी भूमि के अनिवार्य अधिग्रहण को किसी भी कारण से सही नहीं ठहराया जा सकता। ‘‘लिहाजा यह विडम्बना ही है कि जिन लोगों को माओवादी कहा जा रहा है (जिनमें वे सभी शामिल हैं जो भूमि अधिग्रहण का विरोध कर रहे हैं) वे दरअसल संविधान की रक्षा करने के लिए लड़ रहे हैं, जबकि सरकार उसका उल्लंघन और तिरस्कार करने की भरसक कोशिश कर रही है।’’ (‘आहत देश’, पृष्ठ-146)।
यह पुस्तक आम पाठक को जंगलों में चल रहे इस तथाकथित युद्ध के असली कारकों का परिचय देती है और इस प्रक्रिया में व्यवस्था, प्रशासन, पुलिस और मीडिया के असली चेहरों को बेनकाब करती जाती है। अरुंधति राय के अनुसार वहां की सबसे बड़ी लड़ाई जंगलों और पहाड़ियों में छुपे बाक्साइट भंडार सहित अन्य खनिजों के खनन को लेकर लड़ी जा रही है। सिर्फ उड़ीसा के बाक्साइट खनिज की कीमत (2004 में) 2.27 ट्रिलियन (खरब) डालर (भारत के सकल घरेलू उत्पाद के दोगुने से भी ज्यादा) आंकी गई थी; जो अब (2009 में) लगभग 4 ट्रिलियन डालर हो गई होगी। सरकार को इसमें मात्र सात फीसद रॉयल्टी मिलती है। जाहिर है कि बाकी पैसा उन कंपनियों और उनके सूबेदारों के पास ही जाएगा।
अरुंधति राय प्रामाणिक आंकड़ों के साथ यह बताती हैं कि उड़ीसा के साथ-साथ छत्तीसगढ़ और झारखंड में बाक्साइट के अलावा कच्चा लोहा, यूरेनियम, डोलोमाइट, कोयला, टिन, ग्रेनाइट, संगमरमर, ताँबा, हीरा, सोना, क्वार्टजाइट, कारंडम, वैदूर्य और हरितमणि, सिलिका, फ्लुओराइट और याकूत जैसे अट्ठाइस दूसरे खनिज मौजूद हैं। झारखंड, बिहार, छत्तीसगढ़, मध्यप्रदेश, आंध्र, तेलांगाना और मध्य प्रदेश के इस क्षेत्र को मीडिया ‘लाल गलियारा’ का नाम देता है, जिसे अरुंधति राय ‘अनुबंध गलियारा’ कहती हैं, क्योंकि इस क्षेत्र के हर पहाड़ी, हर नदी, हर जंगल के लिए एमओयू या समझौते हो चुके हैं, जिनमें सरकार के साथ मित्तल, जिन्दल, टाटा, एस्सार, पॉस्को, रिओ टिन्टो, बीएचपी बिलिटन और वेदान्त कंपनियाँ शामिल हैं जो हर हाल में वहाँ के अकूत खजाने को हासिल करना चाहती हैं। (पृष्ठ 31)
यहाँ यह भी विचारणीय है कि एक टन अल्मूनियम पैदा करने के लिए छह टन बाक्साइट चाहिए, जबकि इसके लिए हजार टन से ज्यादा पानी और बिजली की विराट मात्रा दरकार चाहिए। और यहाँ के लाखों लोगों के होने वाले विस्थापन की कीमत पर मिलने वाले अल्मूनियम का मुख्य उपयोग विदेशी हथियार उद्योगों के काम में किया जाएगा। इसके साथ-साथ झारखंड में जादूगोड़ा में हो रहे यूरेनियम के खनन से होने वाली तबाही को लेकर लगातार आंदोलन चल रहे हैं।
माओवादी प्रभाव क्षेत्र में विकास न होने देने के आरोप का जवाब देते हुए वे लिखती हैं कि जहाँ माओवादियों का प्रभाव क्षेत्र नहीं है, वहाँ भी ‘न तो स्कूल हैं, न हस्पताल और न छोटे बांध। छत्तीसगढ़ में लोग इतने गंभीर कुपोषण से पीड़ित हैं कि डाक्टरों ने उसे ‘आहार संबंधी एड्स’ कहना शुरू कर दिया है। ज्यादातर लोगों के खून में (जिनमें जनमुक्ति छापामार सेना के लोग शामिल हैं) हेमोग्लोबिन की मात्रा 5 से 6 के बीच है। छोटे बच्चों को प्रोटीन ऊर्जा कुपोषण दर्जा 2 है। (पृष्ठ 109)।
जिस 16 दिसंबर, 12 के दिल्ली रेपकांड को लेकर पूरे देश में मीडिया ने भारी बवंडर उठाया था उससे भी भयानक कांड उन जंगलों में आदिवासी स्त्रियों के साथ आए दिन हुआ करते हैं किंतु मीडिया बिल्कुल चुप रहता है। अरुंधति राय लिखती हैं कि पहले वन विभाग के कारकून और बाद में पुलिस उन्हें निशाना बनाती थी। अब सुरक्षा बल के जवानों के साथ ‘जन जागरण अभियान’ के नाम से बनाई गई एक प्रकार की कारपोरेटी सेना सलवा जुडुम (जिसके शुरूआती साहूकारों में टाटा स्टील और एस्सार स्टील का नाम ग्रामीण विकास मंत्रालय की एक समिति की ड्राफ्ट रिपोर्ट में शामिल है) के लोग यह काम करते हैं (पृष्ठ-79)।
वे 2005 की एक घटना का विवरण देती हैं कि तब कोरमा गाँव पर नगा बटालियन और सलवा जुडुम ने हमला किया। उन्होंने गाँव को जलाने के बाद तीन लड़कियों को पकड़ लिया और उनके साथ सामूहिक बलात्कार किया और फिर मार डाला। ‘‘उन्होंने उनके साथ घास पर बलात्कार किया था, लेकिन जब वह खतम हुआ तो वहाँ घास नहीं बची थी। ……. पुलिस अब भी आती है, जब उन्हें औरतों या मुर्गियों की जरूरत होती है।’’ (पृष्ठ-94)
अगले अंक में जारी