अपने पूर्ववर्ती नक्सलवादियों की ही भांति ‘‘माओवादी मानते हैं कि भारतीय समाज की समूची संरचना में अंतर्निहित विषमता को समाप्त करने के लिए भारतीय राज्य (स्टेट) को हिंसक तरीकों से उखाड़ फेंकना ही एकमात्र रास्ता रह गया है)’’ और यह रास्ता इन आदिवासियों ने पहली बार नहीं अपनाया है। जिस ‘भूमकाल’ (भूचाल) की सौवीं जयंती समारोह में अपने शामिल होने का जिक्र अरुंधति राय करती हैं, वह 1910 में अंग्रेजों के विरुद्ध आदिवासियों द्वारा किया गया सशस्त्र विरोध था। झारखंड और उड़ीसा के इतिहास में भी इस प्रकार के सशस्त्र विरोध के अनेक उदाहरण भरे पड़े हैं। हो सकता है इस बार यह माओवाद के नाम से वापस आया हो। और इसे ही देश के प्रधानमंत्री द्वारा ‘देश की आंतरिक सुरक्षा पर सबसे बड़ा खतरा’ के रूप में चिह्नित किया गया है। जिस काम को अंग्रेज नहीं कर सके उसे करने का बीड़ा आजाद भारत की सरकार ने उठाया है। और शायद इसीलिए अब वहाँ सेना की तैनाती के बारे में सोचा जा रहा है।
लेकिन सेना वहाँ आने से पहले यह चाहती है कि उसे नगालैंड, मणिपुर, असम और कश्मीर की भांति वहाँ भी ‘सैन्य बल विशेष अधिकार अधिनियम (जो गैर कमीशन प्राप्त अफसरों को यह अधिकार देता है कि वे संदेह में किसी को भी गोली मार सकते हैं) के तहत वे सारे अधिकार दे दिए जायँ। अरुंधति राय लिखती हैं, ‘‘भारतीय राज्य को सारतः सवर्ण हिंदू राज्य के रूप में न देखना कठिन है (चाहे जो भी राजनीतिक दल सत्ता पर आसीन हो) जो दूसरे के प्रति एक सहज प्रतिक्रियापरक शत्रुता संजोए रखता है। जो सच्चे औपनिवेशिक ढंग से नगा और मिजो लोगों को छत्तीसगढ़ में, सिक्खों को कश्मीर में, कश्मीरियों को उड़ीसा में, तमिलों को असम में लड़ने भेजता है। यह सुदीर्घ युद्ध नहीं तो क्या है?’’ (पृष्ठ 108)।
वे एक और जगह ‘कश्मीर, पश्चिम बंगाल, हैदराबाद, गोवा, नगालैंड, मणिपुर, तेलंगाना, असम, पंजाब, बिहार, आंध्रप्रदेश और मध्य भारत की लंबाई चैड़ाई में फैले आदिवासी इलाकों में नक्सलवादी संघर्ष के दमन का जिक्र करती हुई कहती है कि दसियों हजारों लोग बेखौफो मार दिए गए हैं लाखों को यातनाएँ दी गई हैं। यह सब लोकतंत्र के कल्याणकारी मुखौटे के भीतर।’’
‘आहत देश’ की लेखिका इस लोकतंत्र के कल्याणकारी मुखौटे के पीछे से सत्ता का संचालन कर रहे कॉकस को ‘चांडाल चैकड़ी’ का नाम देती हैं और इसमें नेताओं, नौकरशाहों और कारपोरेट घरानों के साथ (कुछ अपवादों के साथ) न्यायाधीशों को भी शामिल करती हैं तो चुनावों को ‘लोकतंत्र की भडैंती’ की संज्ञा देती हैं। (पृष्ठ-141)
वे ‘आहत देश’ में लिखती हैं ‘‘आज अगर आदिवासियों ने हथियार उठा लिए हैं तो इसलिए क्योंकि वह सरकार जिसने इन्हें हिंसा और उपेक्षा के अलावा और कुछ नहीं दिया, अब इनकी आखिरी चीज भी छीन लेना चाहती है इनकी जमीन। (पृष्ठ 18)
‘द गार्जियन’ के जिस साक्षात्कार का जिक्र मैंने शुरू में किया है, उसी में अरुंधति राय देश की सत्ता के खिलाफ आदिवासियों के हिंसक प्रतिरोध का जिक्र करते हुए कहती हैं, ‘‘मान लें कि आप जंगल के भीतर के किसी गाँव में रहने वाले आदिवासी हैं और आपके गाँव को सीआरपी के 300 जवानों ने घेर लिया है और उसे जलाना शुरू कर दिया है तो आप क्या करेंगे? क्या आप भूख हड़ताल करेंगे? पहले से ही भूखा आदमी किस प्रकार भूख हड़ताल कर सकता है? अहिंसा एक प्रकार का थिएटर है, जिसके लिए दर्शकों की जरूरत होती है। जब आपके साथ कोई नहीं तो आप क्या करेंगे? तब लोगों का यह हक बनता है कि वे विनाश (कारियों) का प्रतिरोध करें।’’
वे अपने साक्षात्कार में स्पष्ट रूप से कहती हैं कि वे कोई माओवादी सिद्धांतकार नहीं हैं, क्योंकि वे जानती हैं कि कोई भी कम्यूनिस्ट आंदोलन पूंजीवाद से कम विनाशकारी नहीं सिद्ध हुआ है। वे माओवादियों के प्रतिरोध से सहानुभूति रखती हैं तो इसलिए क्योंकि आज के दौर में सरकार द्वारा जनता, जो केवल संविधान- प्रदत्त अपने अधिकार की मांग भारत के कोने-कोने में कर रही है, के दमन का विरोध जिस ढंग से किया जाना चाहिए कुछ कुछ वैसा ही विरोध माओवादियों द्वारा किया जा रहा है। और इसे औचित्य प्रदान करते हुए वे कहती हैं कि ‘बुलेटों और यातना की कोई भी हिंसा भूख और कुपोषण की हिंसा से बड़ी नहीं होती’।
यहाँ मैं यह भी जोड़ना चाहता हूँ कि यह पहली बार नहीं कि कोई लेखक या कोई ‘बाहरी’ व्यक्ति नक्सलवादियों के प्रति इस तरह की सहानुभूति का प्रदर्शन कर रहा है। 12 या 13 जून 1975 में बिहार के नक्सल प्रभावित क्षेत्रों की यात्रा करते हुए वहाँ के लोगों से जयप्रकाश नारायण ने कहा था कि ‘आप हिंसा का रास्ता छोड़कर ‘संपूर्ण क्रांति’ का रास्ता अपनाएँ। यदि पाँच वर्ष की अवधि के भीतर स्थितियों में कोई भी सुधार नहीं होता तो मैं आपको नक्सलवाद छोड़ने को नहीं कहूँगा’।
इसी के साथ नक्सलवाद विरोधी सरकारी अभियान में हिस्सा लेने वाले भूतपूर्व डीजीपी प्रकाश सिंह की प्रसिद्ध किताब ‘द नक्सलाइट मूवमेन्ट इन इन्डिया’ का निम्नलिखित अंश उद्धृत करना मैं यहाँ प्रासंगिक समझता हूँ, ‘‘नक्सलवाद ऐसा शब्द है जिसका अत्यधिक दुरुपयोग हुआ है। किसी क्षेत्र में सामाजिक या आर्थिक न्याय की मांग करने वाले किसी भी आदमी के खिलाफ चलाई जा रही दमनात्मक कार्रवाइयों को कुछ निहित स्वार्थी तत्त्वों का समर्थन करने वाला प्रशासन उस पर यह शब्द चस्पा करके उसे उचित सिद्ध करता रहा है। कुछ नक्सलवादी समूह, जो कुछ विवेकहीन हिंसा का काम करते रहे हैं, वे भी इस भ्रम के लिए दोषी हैं। मूलतः यह अपने सामाजिक एवं आर्थिक अस्तित्व के लिए शोषित किसानों, वंचित आदिवासियों और शहरी सर्वहारा द्वारा किए जा रहे संघर्ष का प्रतिनिधित्व करता है। अपनी जनता को कम से कम इतना देना किसी भी सत्ता का कर्तव्य बनता है। यदि वह इतना भी नहीं दे सकती तो इसका परिणाम विनाशकारी होना निश्चित है।’’