कनक नहीं रही. 2 मई को वह हमे छोड़ गयी. कुछ ही महीने पहले उसका जन्म दिन था और मैंने बचकानी हरकत कर डाली. उसे केक खिलाने का. मैंने ऐसा जानबूझ कर भी किया. इस समझ के साथ कि जिससे स्नेह हो तो उसे प्रदर्शित करने में कंजूसी नहीं करनी चाहिए. उसके अगले दिन हम दोनों एक साथ लोकतंत्र बचाओ प्रदर्शन में शामिल होने भी गये. दरअसल, हम भाई बहन इस लिहाज से खुशनसीब हैं कि हम बाल्यावस्था से अब तक साथ है. हमारा जीवन भी मिलता जुलता चला. हालांकि वह मुझसे ज्यादा मेधावी है. मैं हमेशा सेकेंड डिवीजनर रहा, वह हमेशा फस्ट डिवीजनर. मैं एएन कालेज में पढ़ा, वह पटना के बेस्ट साईंस कालेज में. 74 आंदोलन में मैं थोड़ा पहले और वह बाद में शामिल हुई, लेकिन वह छात्र युवा संघर्ष वाहिनी की बिहार प्रांत संयोजक भी बनी. मुझे याद है कि एमरजंसी लगने के बाद मैं दिल्ली चला गया था और एक दो वर्षों के बाद जब वापस आया तो घर की हवा बदल चुकी थी. कनक जो मेरे जाने के पहले तक घर में रहती थी, छात्र युवा संघर्ष वाहिनी से जुड़ कर सक्रिय हो चुकी थी. उसका दायरा विस्तृत हो चुका था और बैठकों में या किसी से मिलने पर मेरा परिचय कनक के बड़े भाई के रूप में कराया जाता था.
78 के बाद जेपी के आह्वान पर हमने कुछ वर्षों ग्रामीण इलाकों में काम किया. उसने सघन क्षेत्र में काम करने के लिए बोधगया का दलित क्षेत्र चुना और मैं ने सिंहभूम का आदिवासी इलाका पोटका. बोधगया के भूमि संघर्ष में काम करने के साथ वह अक्सर आदिवासी क्षेत्र पोटका के मेरे काम में मदद करने आया करती. न सिर्फ पोटका क्षेत्र के काम काज में, बल्कि मेरे जीवन के हर आड़े वक्त में वह मेरी बहन नहीं, साथी बन कर खड़ी रही. शेषा जी से विवाह के मेरे निर्णय से घर के लोग विरुद्ध थे, लेकिन वह मेरे साथ. दो वर्ष पहले जब ‘पत्थरगड़ी’ के पक्ष में लिखने की वजह से भाजपा सरकार ने बीस अन्य लोगों सहित मुझ पर ‘देशद्रोह’ का मुकदमा कर दिया तो सतत चलने वाले विरोध प्रदर्शनों की तैयारी में उसने बराबरी की भूमिका निभाई.
खैर, 74 आंदोलन, सघन क्षेत्रों में कुछ वर्ष काम करने के बाद हम जीवन यापन के संघर्षों में फंसे और रांची में हम सब इकट्ठा हो गये. और अब साथ बने मकानों में ही रहते हैं. क्योंकि जीवन यापन के लिए रोजगार के रूप में मैं, श्रीनिवास और मधुकर ने ‘प्रभात खबर’ में ही काम किया. पहले मेरी छोटी बहन कुमुद का पति मधुकर ने नौकरी ज्वाईन किया, फिर मुझे और कनक के पतिदेव श्रीनिवास जी को वहां खींच लिया. मैं तो करीबन 15 वर्ष बोकारो में रह कर पत्रकारिता की, लेकिन 2003 में हम बोकारो से रांची आ गये और तब से दिन रात का साथ है. हर तरह के आंदोलनों, धरना प्रदर्शनों में हम साथ साथ जाते. छह लोग तो हम घर में ही थे, फिर किरण और कभी कभी रुनू भी. यह सब शायद अब भी चलता रहेगा, लेकिन अब कनक नहीं रहेगी.
कनक मेधावी थी. फस्ट डिवीजनर रही, पीएचडी की, लेकिन कैरियर के प्रति कभी गंभीर नहीं रही. देर सबेर किसी सरकारी नौकरी में गयी.. आज स्त्री विमर्श की जो बातें चल रही वह सब हम लोग चालीस वर्ष पहले किया करते थे..उसने उन दिनों बहुचर्चित नाटक ’दूसरी सीता’ में नायिका का रोल किया था. हमने उन मूल्यों को भरसक जीवन में उतारने की भी कोशिश की..हम पूरी तरह सफल रहे, यह दावा नहीं कर सकते..लेकिन मैं और शेषाजी, कनक-श्रीनिवास, कुमुद-मधुकर, हम सब संबंधी होने से पहले साथी हैं, छोटे मोटे मतभेदों के बावजूद समतामूलक समाज के पक्षधर और उसके लिए सचेष्ट भी.
मुझे लगता था कि हम जीवन के बचे खुचे दिनों में साथ रहेंगे. जीवन के सामाजिक राजनीतिक क्षेत्र में तरह-तरह के झंझावातों के बीच यह एक सुख था, जो छिन गया. कनक हमेशा के लिए मुझे अधूरा कर गयी.