दो मई को ही साथी नूतन हम सबों को छोड़ गई थीं। यह साल था 2012 और इस दो मई को साथी कनक अलविदा कह गयीं। दोनों को पहले हूल जोहार!
हम जानते हैं कि इस तरह अलविदा कहने वाले कभी लौट कर आते नहीं और हम यह भी जानते हैं कि जो इन धरा पर आया है उसे एक न एक दिन जाना ही पड़ेगा। लेकिन इतनी जल्दी जाना कोई जाना नहीं होता। ऐसा जाना तो आंखें चुरा कर चला जाना होता है। लेकिन यह कहना भी सही नहीं कि नूतन जी और कनक जी (दोनों नामों के पीछे जानबूझकर ’जी’ लगा रहा हूं) आंखें चुरा कर गईं। वे तो रास्ता दिखाकर गईं। आइए, वे रास्ते क्या हैं जो उन दोनों बहादुर महिलाओं ने हमें दिखाए, जरा उस पर विचार करें।
दोनों की मौत गंभीर बीमारी के कारण हुईं। नूतन जी की मौत कैंसर जैसी असाध्य बीमारी (जो अब असाध्य नहीं रही) से हुई, तो कनक जी की मौत कोरोना महामारी से। पिछले कुछ वर्षों से हम (हम सब भी कह सकते हैं) कैंसर के कारणों पर सोचते रहे हैं और पिछले एक-सवा वर्ष से कोरोना के चरित्र को जानने समझने की कोशिश कर रहे हैं। दोनों बीमारी/महामारी के चाल-चरित्र में तथा उससे निबटने के उपाय की सफलता में बहुत कुछ साम्यता मुझे दिख रही है। इसे ऐसे समझें: सबसे पहली बात तो यह है कि आजादी के बाद अपने देश ने पश्चिम और उत्तर की नकल करते हुए प्रकृति के विज्ञान/संरचना को समझने में भयंकर भूल की है या यों कहें कि प्रकृति को धत्ता बताया है और उसे महज लूट और मुनाफा का साधन माना है। यह सत्ता के नियामकों की तरफ से भी हुआ है और कथित विज्ञानिकों/तकनीकिवेत्ताओं के कारण भी। पिछले कुछ सदियों में हमें यह समझाने और कनिं्वस करने की कोशिशें चली कि प्रकृति पदार्थ है और उस पर विजय पाया जा सकता है। आज भी इसी तरह की कोशिशें हो रही हैं। जबकि कोरोना-काल हमें बार बार यह बतला रहा है कि प्रकृति के सानिध्य में और प्रकृति प्रदत्त उपादानों के साथ जो जितना सहकार करेगा, उतना ही इन असाध्य बीमारी और महामारी से दूर रह सकेगा।
दूसरी बात यह कि कल पूंजीवाद और अब आज का आवारा पूंजीवाद ने चिकत्सकीय और औषधीय पद्धति को सामुदायिक और जन चेतना से तथा आम लोगों के हाथों से हूनर छीन कर इतना केंद्रित और महंगा बना दिया है कि यह सब आम आदमी की ही नहीं, बल्कि अब तो खास आदमी की पहुंच से बाहर कर दिया है। “जनस्वास्थ्य और सामुदायिक स्वास्थ्य“ का गला घोंट दिया गया है। अब सिर्फ और सिर्फ निजी-अस्पतालों का सहारा रह गया है या फिर कारपोरेट-अस्पतालों का।
तीसरी बात यह कि कोरोना-2 ने हमें जिस तरह से बेनकाब किया है उससे न सिर्फ भारत बल्कि पूरी दुनिया त्राहिमाम कर रही है। कथित विकसित देशों में से जिनने इस पर फतह पाई है, वह एक तात्कालिक छलावा भर है। अतिकेन्द्रित व्यवस्था के छलावे में आकर लोकतंत्र के अपहरण की साजिश रची जा रही है। इस बात को हमें गंभीरता से समझने की जरूरत है।
आइए, नूतन जी और कनक जी की असामयिक मौत को समझने और उससे उपजे सबक से खुद का मार्गदर्शन करें। दोनों बहादुर साथियों की मौत हमें यही सिखला रही है कि कारणों की जड़ों की तलाश किए बिना और उसके अनुरूप कदम उठाए बिना इस तरह समस्याओं का समाधान संभव नहीं। जीवन शैली में आमूलचूल बदलाव (प्रकृति के नजदीक जाने का) के बिना ऐसी बीमारियों और महामारियों से नहीं लड़ा जा सकता। आइए, कथित विकास का मोह त्यागकर प्रकृति की ओर लौट चलें। समाधान वहीं है।