एक
कोरोना- महामारी या फ़ासीवादी चाल
मेरा गला रुंध रहा है।
कफ़ से
या
दुःख से
अपनों के मरने पर
रो नहीं पाने का दर्द
जकड़ रहा है
आंसू फूटते हैं
झरते नहीं
एक ही पल में
दिमाग़ साँसे, और आँसू
सब रुक जाते हैं
एक लम्हे के लिए।
नहीं रुकता,
मेट्रो का काम,
विस्टा का प्रोजेक्ट
और इंसानियत को रौंदता विकास
दो
मरे हुओं का दुःख
एक एक करके मरता देख,
जिन्दा की गिनती से
खुद को मरों की कतार में गिन रही हूँ!
फूटने को आतुर सिसकियाँ
जताती हैं,
बच भी गए तो क्या
मरे हुओं का दुःख
मार देगा हमें।
तीन
बेबसी
तड़प है
दर्द है
बेबसी है,
दोस्तों के सर पर हाथ न रख पाने की।
साझे न रो पाने का सोग..
पाट न सकने वाली दूरियां
बेबसी से उबलता आक्रोश
अब खौलने लगा है |
बेबसी की इस ऊपज में
शरीक़ है हाकिम की नाकामी
चार
सन्नाटा
साफ़ सुथरी सड़कों पे सन्नाटा गूँज रहा है।
ये ख़ामोशी के मंज़र
सांय सांय कर
आगे पीछे
मेरे चरों तरफ़ा हैं।
बाज़ार
सड़कें
फ़ुटपाथ सुस्ता रहे हैं,
चौराहों की बत्तियां गुल हैं।
ठीक उसी तरह,
जैसे,
अस्पताल, इंजेक्शन, वेंटिलेटर, एम्बुलेंस और सांस लौट आने की आस |
सन्नाटे की इस मौजूदगी में,
तैयार हो रहा है एक नया बाज़ार |
सड़क पे रौनक लगाने वाले
मैले कुचेले ठेले से इतर |
फिर से सब आबाद होगा |
सड़कें, बत्तियां, मॉल
नहीं होंगे वे, जो झोकें गए विकास में |
ख़ामोशी पटेगी,
फिर निस्बा- ए आवाज़ की तलाश में |
पांच
खौफ़
हवा का भी ख़ौफ़ है।
सांस भरते हुए,
हवा के हर कश पे,
शक़ आता है।
कहीं फेफड़ों में जाते ही
दम तो नहीं घोंट देगी।
पानी भी बेएतबार सा है
कहर ए कुदरत ये हो नहीं सकता |
फिर आज ये मिलावट
आब ओ हवा में कैसी।
गुंजाइश नहीं प्रकृति पे शक़ की
वाकिफ़ हैं हम फ़ासीवाद की हर चाल से|
छ्ह
लाचारी
भाड़े पर रह रहे थे जो,
वे अब सड़क पे आबाद हो गये हैं |
भाड़ा, राशन, इलाज नहीं जुटा पाए |
मगर वे विकास, उन्नति
और सुविधाओं के आंकड़ों में दर्ज हैं |
हाल ही में इनके हाल का
कोई प्रतिशत नहीं है |
बेघर हो जाने का,
भूख से तड़प जाने का,
यतीम हो जाने का,
इलाज के इन्तिज़ार में मर जाने का|