सोना दी
हाँ दी, हाँ !
तुम सच में, सोना ही तो हो !
सदियों से स्वयं को महिला - पुरुषों ने
सुन्दर दिखाने के लिये सोना पहना !
लेकिन तूने, उस सोना को त्यागा ही नहीं!
बल्कि अपने पूरे व्यक्तित्व को ही सोना बना डाला!
धन्य है तू बेटी!
माँ बाबा के दिए नाम को,
यूँही सार्थक बना डाला!
प्रशंसक दिवानी सी बन आज तुम्हारी,
आभूषणों से लदी महसूसती हूँ खुद को!
और
गर्व करती हैं वे सारी स्त्रियाँ,
जो तुम्हें सुनती,पढ़ती और जानती हैं।
मिलने का सौभाग्य अवश्य गंवायी मैं!
पर रहती हर वक्त साथ तेरे मैं।
हँसता तुम्हारा चेहरा
और बड़े-बड़े तेरे कारनामे,
ले जाती है खींच मुझे
बरबस तेरे साए में!
ताज्जुब होता है !
ऐ अधिकारी पुत्री !
समझ तू कैसे जाती थी हमारा दर्द?
हमारी टूटती बिलखती भावनाएं!
छूटती मरती हमारी आवश्यकताएं ?
घर का हर ऐशो आराम छोड़
सामाजिक आन्दोलनों में,
तेरा यूँही कूद जाना !
धर्म- समाज की बेडियाँ,
तेरा यूँही तोड़ जाना !
फिर अचानक …
माँ- बाबा की सेवा करते- करते
मृत्युशय्या में अपनी,
तेरा यूँही सो जाना??
मुझे याद है..
कोरोना काल के वो दिन!
अन्तिम समय तक तू,
सामाजिक और पारिवारिक धर्म निभाती रही!
फिर अचानक ..
विनोद दादा का मैसेज आना..
‘कनक की ऑक्सीजन लेबल घट रही..’
फिर दुसरे ही दिन पुनः मैसेज का आना-
अब कनक की हालत अच्छी है..!
…ओह..! कुछ ही देर में वो दर्दनाक मैसेज…
‘कनक हमारी नही रही..!’
………
सोचती हूँ सोना दीदी!
जब तूम,
पंचतत्व में विलीन हो रही थी,
अग्नि की भट्ठी में धू- धू जल रही थी,
उस वक्त भी क्या तू?
ऐसे ही खिलखिला रही थी?
या..चिंतित थी ??
कि…!
‘स्त्रीशब्द’ कहीं गुम ना हो जाएँ??
नहीं दी! नही !
तुम्हारे ये ‘स्त्रीशब्द’
कभी खामोश नही होंगे!
ये वादा है मेरा तुमसे!
एक गुमनाम बहन की ओर से!
जिसे तुम नहीं जानती!
और ना ही पहचानती!
लेकिन..
मैं, तुम्हें जानती हूँ रे !
क्योंकि तुम कहीं गई नहीं!
जीवित हो हमारे बीच!
तुम ष्थीष् नहीं!
तुम अब भी हो हमारे बीच!
हामारी भावनाओं में,
हामारी आवश्यकताओं में,
हमारे आन्दोलनों में,
स्त्रियों से सम्बंधित क्रांतियों में।
क्योंकि..
तुम्हारे शब्द ‘स्त्रीशब्द’ हैं !
हाँ !!
क्योंकि तुम्हारे शब्द ‘स्त्रीशब्द’ हैं !
वही ‘स्त्री’ !
जो तुम भी हो
और मैं भी हूँ ।