मृत्यु अपरिहार्य है, अवश्यम्भावी है. मगर जीवन उससे भी बड़ा सच है. इस बात को मानता हूं. अच्छी तरह समझता हूँ. इसके पक्ष में हमेशा दूरदर्शन पर बहुत पहले प्रसारित सीरियल ‘नुक्कड़’ के एक एपीसोड का किस्सा सुनाता रहता हूँ. खास कर किसी का निधन होने पर. किसी अपने के दाह संस्कार के मौके पर कई बार श्मशान घाट पर भी सुनाया है. वह कथा संक्षेप में- अपने बीच के एक बुजुर्ग (क्लार्नेट मास्टर) को दफना कर लौटने के बाद ‘नुक्कड़’ पर मातम पसरा हुआ है. तभी रोडध्फुट ब्रिज से एक युवा दंपत्ति उतर रहा होता है. महिला को अचानक प्रसव पीड़ा शुरू हो गयी हैय और उसका परेशान पति मदद के लिए इधर उधर देखता है, पुकार लगाता है. और ‘नुक्कड़’ का सन्नाटा टूट जाता है, वह जीवंत हो उठता है. ‘नुक्कड़’ परिवार के सभी सदस्य उस जोड़े की मदद के लिए सक्रिय हो जाते हैं. चाय की दूकान में पर्दा लग जाता है. दीदी जी (टीचर) आकर नर्स की भूमिका निभाती हैं. सभी कुछ न कुछ कर रहे हैं. अचानक नवजात के रोने की आवाज आती है और पूरा नुक्कड़ जीवन के उमंग से भर जाता है. सभी सदस्य नाच रहे हैं गा रहे हैं. निष्कर्ष? मृत्यु कितना भी बड़ा और दुखदायी सच हो, जीवन हमेशा उस पर भारी रहता है, रहेगा. ‘नुक्कड़’ के निर्दशक ने इस सत्य को कितने खूबसूरत तरीके से स्थापित किया है.

मगर दूसरों को यह सच बताते रहने के वावजूद आज महसूस हो रहा है, जैसे मैं ‘शिकारी आएगा, जाल बिछायेगा, दाना डालेगा…’ वाले किस्से के उन कबूतरों में से एक हूँ, जिन्होंने उस सीख को सिर्फ रट लिया था, समझा नहीं था.

मुझे नहीं याद कि इस जिन्दगी में मैं कभी इस कदर रोया था, जितना बीते चंद दिनों में रोया हूँ. मैं इतना भावुक कभी नहीं रहा. हूँ भी तो उस पर काबू पा लेता हूँ. बहुत कम उम्र में अपनी दादी के निधन के बाद भी रुलाई तब फूटी, जब बाबा (पिता, जिनको कभी रोते नहीं देखा था) रोने लगे. फिर दीदी (मां) और बाबा के निधन पर भी रोया, मगर इस तरह नहीं. अपने नायक जेपी के देहानत के बाद भी आठ अक्टूबर श्79 को दिन-रात सहज रहा. अगले दिन श्रीकृष्ण मेमोरियल, पटना से उनकी शवयात्रा प्रारंभ होने के बाद मैं वाहिनी के दफ्तर के लिए चल पड़ा. भूख लगी थी. एक दुकान में बैठ कर कुछ खाने लगा. उधर बांस घाट पर हो रही अंत्येष्टि का सीधा प्रसारण रेडियो पर हो रहा था. जैसे ही जेपी को मुखाग्नि दी गयी, मेरा निवाला अटक गयाय और मेरे आंसू बहने लगे…. अपनी मौजूदा हालत के बारे में बताते हुए थोड़ी शर्मिन्दगी का एहसास भी है, मगर सच यही है.

दैनंदिन क्रिया-कलाप कर रहा हूँ. भूख लग रही है. भरपेट भोजन कर रहा हूँ. रूनू (बेटी) थोड़ा अतिरिक्त ख्याल भी रखने लगी है. फोन आता है. बात करता हूँ. वाट्सएप पर चैट कर रहा हूँ. मगर टीवी नहीं देख रहा. और एकदम अकेले में कई बार अनायास रुलाई फूट पड़ती है.

कैसे कटेगी शेष जिन्दगी, क्या करूंगा, कनु को कैसे सम्भाल सकूंगा आदि कारण तो हैं ही, मगर कहीं न कहीं मुझे यह लग रहा है कि मैंने उनके इलाज में कोताही बरती. अनजाने ही सही, समय पर सही फैसला नहीं ले सका. खास कर एक मई के दिन, जब हम कनक को एसडीए (बरियातू) से लेकर रिम्स के ट्रौमा सेंटर गये. उसके बाद से, बमुश्किल दो घंटे छोड़ कर लगातार बगल में बैठ कर एक एक सांस के लिए उनको तड़पते देख कर यह एहसास तीव्र होता गया कि उनकी इस हालत के लिए मैं जिम्मेवार हूँ. उफ इतना कष्ट! यह एहसास तब और गहरा गया, जब उनके चेहरे पर, उनकी आँखों में यह शिकायत नजर आयी कि मैंने उनको इस हालत में पहुंचा दिया. एक मई की पूरी रात जगा रहा, उनके कष्ट को निरुपाय देखता-महसूस करता हुआ. उनके इशारे को आधा अधूरा समझ कर कुछ करने की कोशिश करता हुआ. ऑक्सीजन लेवल कम होने पर नर्स, किसी अन्य मेडिको स्टाफ या डॉक्टर से आकर कुछ करने के लिए मनौअल करता हुआ हुआ. रात तीन बजे मैंने हिचकते हुए उषा किरण (डॉ विवेक कश्यप की पत्नी) को फोन कर दिया. डॉ विवेक शायद गहरी नींद में थे. उसके पहले भी उषा जी लगातार हालचाल पूछती रही थी, उन्होंने कहा कि जो भी डॉक्टर है, उनसे उनकी बात कराऊँ. मेरे यह कहने पर कि उनको बुरा लग सकता है, बोलीं- अभी उनके बुरा लगने की चिंता क्यों करें. एक महिला जूनियर डॉक्टर ने ढंग से बात की. अपने ढंग से समझाया. पर उसके सीनियर पुरुष डॉक्टर ने तल्खी से कह ही दिया कि इतनी रात को किसी से फोन करवाने का क्या मतलब!

करीब छह बजे सुबह (दो मई) विनोद जी पहुँच गये, जैसा वे रात को बोल कर गये थे. बोले-आप फ्रेश होकर आइये, मैं एक घंटे रुकता हूँ. मैं करीब 7.30 में लौट आया. कुछ अतिरिक्त समय दवा खरीदने में लग गया, जिनका इस्तेमाल भी नहीं हुआ.

कनक के ऑक्सीजन लेवल का फ्लक्चुएशन बढ़ गया था. कभी 94, तो अचानक 70 के आसपास. एक एक सांस लेना कठिन हो रहा था. इन्द्रियों पर नियंत्रण छूटता जा रहा था. मैं इधर से उधर करता रहा.

आखिरकार एक डॉक्टर आया. गंभीरता से देखा. बीती शाम ब्लड टेस्ट हुआ हुआ था. 7600 रुपये लगे थे. जाहिर है, कुछ खास टेस्ट था. जाँच रिपोर्ट मेरे फोन में थी. डॉक्टर ने देखा, कहा- इनकी हालत ठीक नहीं है. तत्काल एक नये प्रोसेस में जाना होगा, जिसमें थोड़ा रिस्क है. आपको लिखित अनुमति देनी होगी. मैंने बिना देर किये उस कागज पर हस्ताक्षर कर दिया. मुझे वार्ड से बाहर जाने कहा गया. मेरे दिल की धड़कनें बढ़ गयी थीं या रुकी जा रही थीं, नहीं कह सकता. मैंने अपने फैमिली वाट्सएप ग्रुप पर लिखा- ‘मैंने जुआ खेल दिया है और जीत की उम्मीद नहीं है.’ कोई बीस मिनट बाद डॉक्टर बाहर आया, कहा- ‘हम तो बता चुके हैं कि हम जो करने जा रहे हैं, उसमें जोखिम है. अभी उनके (कनक के ) दिल की धड़कन रुक गयी थी. मगर मसाज करने से वापस आ गयी. आप इन्तजार कीजिए. अभी कुछ कहा नहीं जा सकता.’

इन्तजार लम्बा हुआ तो लगा कि शायद चमत्कार होने वाला है. मैं अपना फोन नम्बर गार्ड को नोट करा कर नीचे चला गया, ताकि डॉक्टर को बात करना हो, तो आसानी हो. नीचे बबलू (भतीजा), विनोद जी और रूनू (कनु के साथ) थे. बलराम भी. आधे घंटे बाद फिर ऊपर गया. कुछ देर में वही डॉक्टर बाहर आया, बोला- ‘कहाँ चले गए थे आप, हम उनको नहीं बचा पाये.’ कितनी आसानी से कह दिया उसने! मतलब जिस कनक को मैं जिन्दगी के लिए जूझती छोड़ कर आया था, वह अब नहीं है!! और मैंने कितनी आसानी से वह सुन लिया!

मुझे आशंका तो थी ही, इसलिए मन में डॉक्टर के प्रति कोई शिकायत नहीं उपजी. फिर भी कुछ देर के लिए निष्पंद हो गया. सूनी आँखों से डॉक्टर और उनकी टीम की ओर देखा. लगा- मैंने उनको उस प्रोसेस में जाने की अनुमति नहीं दी थी, कनक की मौत के परवाने पर दस्तखत किया था.

मगर मैं उनको जिस कष्ट में देख चुका था, यह भी लगा कि जो हुआ, ठीक ही हुआ. अफसोस इस बात का था कि रात भर उनके जिस जीवंत शरीर के एकदम पास रह कर उनको उस कष्ट से कुछ राहत पहुंचाने के प्रयास करता रहा, पानी-मौसम्मी का रस पिलाने की कोशिश करता रहा. कपड़ों के गीलेपन को सुखाने का प्रयास करता रहा, अंतिम पलों में उनके पास नहीं था. यह मलाल जिंदगी भर रहेगा.

जब वह मर्मांतक खबर सुन कर अंदर बेड के पास गया, उनके चेहरे पर अतीव शांति का भाव था. किसी कष्ट का कोई चिह्न नहीं. मानो गहरी नींद में हों. लेकिन वह जिस ‘गहरी’ नींद में थीं, उसका एहसास मेरे अंदर खालीपन भरता जा रहा था.

तब से कोई आधा घंटा पहले ही वह मुझे, हम सब को अपनी सेवा की जवाबदेही से मुक्त कर चुकी थीं. मैं घूम घूम कर जाता, अस्त व्यस्त होते कपड़ों को समेटने का प्रयास करता. हर बार संकोच के साथ निष्प्राण कनक का एक फोटो खींच लेता, जिसे अभी तक किसी को दिखा नहीं सका, न शायद दिखा पाऊंगा.

फिर मैं बाहर आकर सीढ़ियों पर बैठ गया. बमुश्किल अपने पारिवारिक समूह पर, फिर ‘मित्र मिलन’ सहित कुछ परिजनों और मित्रों को मैसेज किया- कनक… अब ‘थी’ .. चिर शांति.