14 जुलाई 2022 को सर्वोच्च न्यायालय ने 2009 के एक मामले में हिमांशु कुमार और बारह अन्य लोगों द्वारा दायर एक रिट याचिका को खारिज कर दिया, जिसमें छत्तीसगढ़ के सुकमा जिले (तत्कालीन दंतेवाड़ा) के गांवों में आदिवासियों की गैर-न्यायिक हत्याओं की स्वतंत्र जांच की मांग की गई थी. इस हादसे को गोम्पाड नरसंहार के रूप में जाना जाता है जिसमें सितंबर और अक्टूबर 2009 में हुई हिंसा की दो प्रमुख घटनाएं शामिल हैं, जो गोम्पाड और गच्चनपल्ली के गांवों में हुई थीं, जिनके साथ आसपास के गाँव की 2-3 छोटी घटनाओं भी शामिल हैं जिसमें कम से कम 17 आदिवासी मारे गए थे.

सुप्रीम कोर्ट ने इस रिट याचिका को खारिज करते हुए हिमांशु कुमार पर पाँच लाख रुपये का अनुकरणीय जुर्माना लगाया है. साथ ही फैसले में सुझाव दिया है कि छत्तीसगढ़ राज्य / सीबीआई द्वारा याचिकाकर्ताओं के खिलाफ भारतीय दंड संहिता की आपराधिक साजिश रचने की धारा और पुलिस और सुरक्षा बलों पर झूठा आरोप लगाने के लिए आगे की कार्रवाई की जा सकती है जिसमें अन्य धराएं भी शामिल करी जा सकती हैं. हमारे जैसे नागरिक समाज संगठन और छत्तीसगढ़ में मानवाधिकार आंदोलन से जुड़े लोग इस बात से चिंतित हैं कि इस फैसले ने न्यायिक अदालत में न्याय की खोज को ही एक आपराधिक कृत्य बना दिया है. यह निर्णय छत्तीसगढ़, विशेष रूप से बस्तर में पुलिस और सुरक्षा बलों से जवाबदेही की व्यवस्था के अस्तित्व और मानवाधिकारों की वकालत के लिए खतरा है.

हिमांशु कुमार, जो कि इस मामले के याचिकाकर्ता नं. 1 हैं, एक गांधीवादी हैं जो बस्तर में तीन दशकों से अधिक समय से काम कर रहे हैं और बस्तर के आदिवासी लोगों के खिलाफ मानवाधिकारों के उल्लंघन को उजागर करने में लगातार मदद की है. इस मामले में अन्य बारह याचिकाकर्ता गोम्पाड नरसंहार में मारे गए लोगों के परिवार के सदस्य हैं.

हिमांशु कुमार और अन्य के मामले में निर्णय में कहा गया है कि चूंकि याचिकाकर्ता पुलिस और सुरक्षा बलों के खिलाफ अपने आरोपों को साबित करने में असमर्थ थे, इसलिए पूरी याचिका में दुर्भावनापूर्ण इरादा है, और यहां तक कि एक आपराधिक साजिश भी हो सकती है. यह तर्क अपने आप में गलत है. यह सर्वविदित है कि साल दर साल अकेले दंतेवाड़ा जिले में नक्सली मामलों में दर्ज आदिवासी व्यक्तियों की बरी होने की दर 95 फीसदी से अधिक है. 2015 में बस्तर सत्र न्यायालय में दर्ज यू ए पी ए के 101 मामलों के एक अध्ययन से पता चला है कि 92 मामलों में लोग बरी हो गए, शेष 9 को अन्य अदालतों में स्थानांतरित कर दिया गया, और एक भी मामले में दोष सिद्ध नहीं हुआ. क्या इसका मतलब यह है कि आपराधिक साजिश के आरोप में बस्तर की पूरी पुलिस को जेल में डाल देना चाहिए?

हम यह जानकर व्यथित हैं कि बस्तर में राज्य पुलिस द्वारा आदिवासी व्यक्तियों को नक्सली होने का आरोप और उन पर दमन और बर्बरता, साथ ही मानवाधिकार कार्यकर्ताओं को नक्सल समर्थक के रूप में सताने का दुष्चक्र आज भी बदस्तूर जारी है. शांति, न्याय और सत्य के आदर्शों के लिए प्रतिबद्ध, हम निम्नलिखित की मांग करते हैंः

  1. कांग्रेस सरकार ने बस्तर में शांति और न्याय को अपने चुनाव अभियान में केंद्रीय मुद्दा बनाया था, इसके तहत गोम्पाड नरसंहार की जांच फिर से शुरू करनी चाहिए. जांच को निष्पक्षता के साथ सुनिश्चित कर, इसका परिणाम सामने रख लोगों को न्याय मिलना चाहिए.

  2. हिमांशु कुमार या किसी अन्य याचिकाकर्ता के खिलाफ कोई कठोर कार्रवाई नहीं की जानी चाहिए, क्योंकि इस तरह के गंभीर मामलों में संवैधानिक न्यायालय से निवारण की मांग नागरिक अधिकार के भीतर ही हैं.

  3. हम माननीय सर्वोच्च न्यायालय से अनुरोध करते हैं कि राज्य के ऐसे अधिकारी जो सद्भावी आशय से काम नहीं करते हैं, उनके संबंध में जवाबदेही न्यायशास्त्र (अकाउनबिलिटी जुरिस्प्रूडन्स) और कानून के तहत समान व्यवहार के सिद्धांत का विस्तार करें.