8 मार्च अंतर्राष्ट्रीय महिला दिवस आते ही समाचार पत्रों, विभिन्न चैनलों एवं पत्र पत्रिकाओं में महिला समस्या, उपलब्धि एवं संभावना पर चर्चा शुरू हो जाती है. यह एक ऐसा ऐतिहासिक दिन है, जो हमें संघर्ष की प्रेरणा से भरे उन मुद्दों की याद दिलाता है जिसके लिए वर्षों पहले अमेरिका की महिलाओं ने आवाज उठाई थी. धीरे-धीरे दुनिया भर में यह आवाज गूंजने लगी. फ्रांस, इंग्लैंड, स्पेन, इटली वियतनाम के साथ-साथ यह आवाज भारत पहुंची और 1980 से यहां भी 8 मार्च महिला दिवस के रूप में मनाया जाने लगा. आईय इस अवसर पर हम सभी महिलाओं की स्थिति का जायजा लें.
एक समाचार पत्र में महिलाओं से साक्षात्कार लिया गया है - ‘ब्रेक द वायस’ यानी रूढ़ मान्यताओं को तोड़ती. इस साक्षात्कार में उन महिलाओं से रूबरू कराया गया है जो आज रूढ़ मान्यताओं को तोड़कर समाज में अपना काम कर रही हैं. बिजली का काम, राज मिस्त्री, ठेकेदारी इत्यादि कामों को आमतौर पर पुरुषों के जिम्मे का माना जाता है. इस क्षेत्र में हस्तक्षेप कर महिलाओं ने रूढ़ मान्यता को तोड़ा है. लेकिन एक बात खटकती है. सात महिलाओं से लिए गए साक्षात्कार में चार ऐसी महिलाओं की आप बीती है जो पति के लचार होने की अवस्था में या की मृत्यु होने पर या अपने घर परिवार बच्चों के परवरिश के लिए घर से बाहर कदम रखकर पति के कामों को अपनाया है. तो क्या यह माना जाए की महिलाओं को आगे बढ़कर काम करना सहज स्वीकार नहीं? समाचार पत्रों में छपे साक्षात्कार की बात छोड़ भी दें, तो हम पाते हैं कि ज्यादातर घरों में पति ही काम करते हैं और महिला घर परिवार बच्चों की देखभाल करती हैं. यही मान्यता चली आ रही है.
महिला घर परिवार बच्चों की देखभाल करती है. भरी दुनिया से अनभिज्ञ रहती है. विशेष परिस्थितियों में अचानक उनको बाहर की दुनिया में कदम रखना कितना कठिन होता होगा, इसका अंदाजा लगाया जा सकता है. क्या यह अच्छा नहीं होता कि पति की उपस्थिति में वह बाहर का भी काम करे. वैसे पहले से हालात सुधरे हंै.ं वह आज हर क्षेत्र में आगे बढ़ रही है, लेकिन पुरुष प्रधान समाज की मानसिकता ऐसी की उनकी समस्याओं का अंत नहीं हो रहा है. सारी जिंदगी उसे अपने अस्तित्व को बचाने एवं अपनी जान की हिफाजत अपने सम्मान के लिए लगा देना पड़ता है. भ्रूण हत्या, दहेज उत्पीड़न, डायन प्रथा आदि ढेरांे समस्याओं से जूझती महिलाओं के लिए कानून तो खूब बने, पर समस्या विकराल रूप में अभी भी उपस्थित है. निर्भया कांड के बाद वर्मा आयोग का गठन हुआ. उससे भी हालत नहीं सुधरे. महिलाओं को पंचायत चुनाव में आरक्षण मिला. घरेलू हिंसा अधिनियम बना एवं अब देश के सांसदों एवं विधायकों में भी आरक्षण की बात हो रही है. इन समस्याओं का समाधान कानून द्वारा नहीं हो सकता. यह काफी नहीं. कानून का डर तो रहे, पर उसे समाज सम्मत बनाना होगा. इसका दायित्व सरकार पर, हमारा, समाज का, सब पर है. सरकार द्वारा चलाए जा रहे कार्यक्रम सिर्फ औपचारिक घोषणा मात्र बन कर रह जाते हैं. 2001 में महिला सशक्तिकरण एक लुभावने नारे के रूप में हमारे सामने आया. इसमें स्त्री मुक्ति की धार को कुंद कर दिया है. स्त्री मुक्ति, पुरुष प्रधान व्यवस्था को नकारते हुए बराबरी की बात करता है, जबकि स्त्री सशक्तिकरण वर्तमान पुरुष सत्तात्मक व्यवस्था के भीतर कुछ स्त्रियों को सत्ता का अंग बनाना, शिक्षा, सभा, समिति, प्रशासन, पंचायत आदि में हिस्सेदारी देने को महत्वपूर्ण मानता है.
अब आम महिला (मजदूर, किसान, कार्यालय में काम करने वाली इत्यादि) अपने हक के लिए बराबरी की लड़ाई के लिए (अपवादों को छोड़ दें) गोलबंद नहीं हो रही, बल्कि वह लुभावने योजनाओं से लाभान्वित होने के जुगाड़ में पर लग गई है. कोई हजार, तो कोई 3000 प्रतिमाह देने की घोषणा कर रहा है, तो कोई लखपति दीदी बनाने का स्वप्न दिख रहा है. कोई मुफ्त गैस चूल्हा बांट रहा है, तो कोई अनाज देने की घोषणा कर रहा है. इतनी घोषणाओं के चकाचैंध में मूल सवाल दब जा रहा है. ऐसे में उस पर भी बहस की जरूरत लगती है की स्त्री सशक्तिकरण, स्त्री मुक्ति, जो 8 मार्च का उद्देश्य है, में कितना सहायक है और उसकी सीमा क्या है? क्या वह सुअवसर पैदा करने के साथ स्त्री स्वतंत्रता की चेतन को बरकरार रख पाता है? आज महिलाएं खासकर युवा लड़कियां सशक्त हुई हैं. शिक्षा, व्यवसाय, खेल, नौकरी के साथ जीवन के हर क्षेत्र में वह कामयाबी का परचम लहरा रही है, लेकिन दुर्भाग्य की जिन सामाजिक बुराइयों से संघर्ष शुरू किया गया लगता है, वह और ताकतवर होकर फिर लौट आए हैं.
आज की नई स्थितियों में स्त्री की पहचान व स्वतंत्रता पर नए सिरे से विचार करने और उसके लिए रणनीति बनाने की जरूरत है. आज का दिन उसे संघर्ष भरे दिनों को याद करने का दिन है. इसमें जीत की खुशी भी शामिल है, जिसे महिलाओं ने अपनी एक जुटता, साहस और धैर्य से हासिल किया था. इसके बल पर ही हम आगे भी अपने हालात को बदलने का प्रयास कर सकते हैं.