नौ मार्च को मुंबई में ‘विश्व सुदरी प्रतियोगिता का फायनल हो रहा है. भारत की सदानंद या सिनी शेट्टी भी दौड़ में शामिल हैं. सबसे पहले यह बताना जरूरी लग रहा है कि हम (संघर्ष वाहिनी धारा के) लोग सौंदर्य प्रतियोगिता को पसंद नहीं करते. महत्त्व तो नहीं देते हैं. मानते हैं कि किसी महिला/युवती (पुरुष की भी) की ‘सुंदरता’ उसकी चमड़ी के रंग, ऊंचाई, अंगों की नाप-जोख आदि से नहीं मापी जा सकती. सुंदरता सम्पूर्ण व्यक्तित्व पर निर्भर करती है. इसमें उसकी बौद्धिकता, दृष्टि, उसके विचार और व्यवहार आदि शामिल होते हैं. इसलिए बाजार के प्रभाव में और उसकी जरूरत के लिए दुनिया भर में जो सौंदर्य प्रतियोगितएं हो रही हैं, उसे हम मूलतः स्त्री विरोधी मानते हैं. फिर भी जो युवतियां इनमें हिस्सा लेती हैं, मेरी समझ से, उनको बेहया-बेशर्म कहने का कोई अर्थ नहीं है. खास कर इस बाजारवादी और उपभोक्तावादी समाज व दौर में, जिसमें हम सब, चाहे-अनचाहे और कम या ज्यादा शामिल हैं, उसका हिस्सा हैं.

गौरतलब है कि भारत में सौंदर्य प्रतियोगिताओं का विरोध दो तरह के समूह करते रहे हैं- एक नारीवादी; दूसरा, भारतीय संस्कृति के स्वयंभू रक्षक. हालांकि अब यह विरोध धीमा पड़ चुका है. शायद इसलिए भी कि भारतीय समाज धीरे धीरे खुलेपन को स्वीकार करने लगा है. फिल्मों में ‘आइटम’ डांस-गीत आम हो गये. इंटरनेट/ सोशल मीडिया के विस्तार के साथ ही कल तक जो चीजें ‘आपत्तिजनक’ लगती थीं, अब वे टीवी चैनलों के जरिये और स्मार्ट फोन के सौजन्य से हर किसी को आसानी से उपलब्ध हैं. फिर भी, कुछ साल पहले जब भारत की मानुषी छिल्लर विश्व सुंदरी चुनी गयी, तो उसे छोटे कपड़े पहनने और अंग प्रदर्शन के आधार पर काफी भला-बुरा, यहां तक कहा गया कि उसे ‘भारत के बेटी’ नहीं माना- कहा जाना चाहिए. मेरी समझ से ऐसी आलोचना गैरजरूरी और अतिवादी है. बेटा ‘कपूत’ होकर भी बेटा (पूत) तो रहता ही है, तो बेटी के लिए अलग पैमाना क्यों?

दरअसल भारतीय स्त्री आज दोहरे दबाव में जी रही है. एक ओर कथित महान भारतीय संस्कृति की रक्षा का जिम्मा उस पर या उस पर ही है, दूसरी ओर आधुनिक शिक्षा और बदलती जीवनशैली के कारण वह पुराने बंधनों से मुक्त भी हो रही है. घर की सीमा से बाहर निकलना उसकी विवशता है, और उसकी आकांक्षाओं के लिए जरूरी भी. पढ़ने और नौकरी के लिए घर से दूर, खास कर महानगरों में अकेले रहते हुए उस ‘लक्ष्मण रेखा’ के दायरे में सिमट कर रहना संभव भी नहीं रह गया है. वे पुरुष सहकर्मियों के साथ काम करती हैं, उठती-बैठती हैं, होटल-सिनेमा जाती है, तो उनमें दोस्ती हो जाना भी स्वाभाविक है. ऐसे में जो अभिभावक अपनी बेटियों से परंपरागत आचरण, पहनावे, गैर मर्दों से दूरी बरतने आदि की उम्मीद करते हैं, वे एक दिवा स्वप्न में रहते हैं. वह स्वप्न टूट भी रहा है और तमाम निषेधों के बावजूद लड़कियां अपनी पसंद का जीवन साथी चुन रही हैं; धीरे-धीरे उन्हें स्वीकार भी किया जा रहा है.

आप अपने आस-पास देखिये. हमारे (शहरी मध्य-उचच मध्यम वर्ग) घरों में टीवी पर तमाम ऐसे चैनल हैं, जिन पर कथित फूहड़-कामुक मुद्राओं वाले फ़िल्मी गाने बज और दिख रहे हैं. कथित मुख्यधाधरा की अमूमन सभी फिल्मों में आयटम गीत और डांस जरूरी हो गया है. ऐसी फिल्में सफल भी होती हैं. और अब यह चर्चा का भी मुद्दा नहीं रहा, विरोध की बात तो छोड़ ही दें. स्कूल-कालेज में होनेवाले ‘सांस्कृतिक’ आयोजनों में भी ऐसे ‘लोकप्रिय’ गानों पर ही युवा कमर मटकाते हैं. ग्रामीण इलाकों में तो पहले भी ‘बाईजी’ और लौंडा नाच का चलन रहा है. अब वह नग्नता की सारी हदें पार कर रहा है. हमारे पारिवारिक आयोजनों में कथित फूहड़-कामुक मुद्राओं वाले फिल्मी आयटम गानों पर बच्चे ही नहीं, युवा और अधेड़ उम्र की महिलाएं भी थिरकती हैं; और पूरा परिवार तालियाँ बजा कर आनंद लेता है! आज जब एक पोर्न स्टार फिल्मों में नायिका के रूप में स्थापित है, तब सौंदर्य प्रतियोगिताओं में कथित नग्नता और प्रतिभागियों के कम कपड़े पहनने की बात करने का कोई तुक समझ में नहीं आता. बेशक ऐसी ‘सुंदरियों को लड़कियों के लिए आदर्श नहीं माना जा सकता. मंच से अच्छी और ‘समाज सेवा’ की बात करनेवाली इन लड़कियों का मूल लक्ष्य फिल्मों या ग्लैमर की दुनिया में मुकाम हासिल करना ही होता है. लेकिन सिर्फ इस कारण भी इनके प्रति हेय भाव रखना बेमानी है. हां, कोशिश करें कि ये आपके घरों की लड़कियों के लिए रोल मॉडल न बन जायें.

जहां तक ऐसी प्रतियोगिताओं और उनमें भाग लेनेवाली भारतीय युवतियों के कारण प्राचीन और भारतीय संस्कृति के बदनाम होने का सवाल है, तो यह याद दिलाने की जरूरत है कि स्त्री हमारे देश में हमेशा से ‘उपभोग’ की ‘सामग्री’ के रूप में ही/भी देखी जाती रही है. अपवादों को छोड़ कर हमारे सभी देवता और आदरणीय पात्र/नायकों की एक से अधिक पत्नियां रही हैं. गैर की पत्नी पर दिल आ जाये, तो किसी हद तक चले जाने के भी उदहारण हैं. इंद्र के दरबार में तो चिरयौवना अपसराएँ थीं, जिनका प्रमुख दायित्व अपने रूप- सौंदर्य का इस्तेमाल कर ऋषि- मुनियों का तप भंग करना होता था. राजा-महाराजा के रनिवास में उप- पत्नियों की कमी नहीं रहती थी. रखैल (जिसे ‘रक्षिता’ जैसे शब्द से महिमामंडित भी किया गया) की परंपरा भी रही है. ‘सौतन’ जैसे बदनाम शब्द से भी पुरुष की बहुगामी प्रवृत्ति और ऐयाशी ही प्रकट होती है. और पुरुष की यौन जरूरतों के लिए सजी देह की मंडियों के खिलाफ आज तक कोई आंदोलन और देह व्यापर पर पूर्ण रोक का कोई गंभीर प्रयास नहीं हुआ. इसलिए कि इनसे शायद हमारी संस्कृति पर कोई धब्बा नहीं लगता!

बेशक युवतियों को सौंदर्य के इन बाजारवादी मानदंडों के जाल से बचना चाहिए. सफलता के लिए देह और रूप का इस्तेमाल करने से भी. लेकिन क्या हम भी ऐसा प्रयास करते हैं कि उनका स्वतंत्र व्यक्तित्व विकसित हो? वे अपने जीवन से जुड़े फैसले खुद कर सकें? शायद नहीं. ऐसे में वे भी बाजार के चकाचौंध में पड़ जाती हैं, सफलता के लिए शार्टकट रास्ते तलाशने लगती हैं, तो क्या अचरज! वे जब देखती हैं कि शरीर की सुंदरता और गठन सफलता का, आगे बढ़ने का पैमाना बन गया है, तो क्या अचरज कि उनमें से कुछ इसी रास्ते पर चल पड़ती हैं! जिस देश में ‘नगरबधू’ चुनने और मंदिरों में ‘देवदासी’ (व्यवहार में वेश्या) नियुक्त करने की परंपरा रही है, जिस देश में ‘गोरी’ होना लड़की का प्रमुख गुण माना जाता हो, जहां गोरापन बढ़ाने की क्रीम का कारोबार सालाना अरबों रुपयों का हो, जहां लड़की अपने विवाह मंडप में सीधे ब्यूटी पार्लर से ही पहुँच रही हो, वहां इन सौंदर्य प्रतियोगिताओं पर नाक-भौं सिकोड़ा जाये, तो थोड़ा नहीं, मुझे तो कुछ अटपटा लगता है.

पुनश्च : यह महज संयोग हो सकता है कि यह प्रतियोगिता महिला दिवस (आठ मार्च) के अगले दिन हो रही है. और यह विडंबना ही है, क्योंकि महिला दिवस को अहम मानने वाले समूह (स्त्री पुरुष सभी) ऐसी प्रतियोगिता को स्त्री विरोधी, बाजार पोषित और मर्दवादी धारणा के अनुरूप मानते हैं.