“ओ मेरे आदर्शवादी मन,

ओ मेरे सिद्धान्तवादी मन,

अब तक क्या किया?

जीवन क्या जिया!!

उदरम्भरि बन अनात्म बन गये,

भूतों की शादी में क़नात-से तन गये,

किसी व्यभिचारी के बन गये बिस्तर,

दुःखों के दाग़ों को तमग़ों-सा पहना,

अपने ही ख़यालों में दिन-रात रहना,

असंग बुद्धि व अकेले में सहना,

ज़िन्दगी निष्क्रिय बन गयी तलघर,

अब तक क्या किया,

जीवन क्या जिया!!

बताओ तो किस-किसके लिए तुम दौड़ गये,

करुणा के दृश्यों से हाय! मुँह मोड़ गये,

बन गये पत्थर,

बहुत-बहुत ज़्यादा लिया,

दिया बहुत-बहुत कम,

मर गया देश, अरे जीवित रह गये तुम!!

लो-हित-पिता को घर से निकाल दिया,

जन-मन-करुणा-सी माँ को हंकाल दिया,

स्वार्थों के टेरियार कुत्तों को पाल लिया,

भावना के कर्तव्य–त्याग दिये,

हृदय के मन्तव्य–मार डाले!

बुद्धि का भाल ही फोड़ दिया,

तर्कों के हाथ उखाड़ दिये,

जम गये, जाम हुए, फँस गये,

अपने ही कीचड़ में धँस गये!!

विवेक बघार डाला स्वार्थों के तेल में

आदर्श खा गये!

अब तक क्या किया,

जीवन क्या जिया,

ज़्यादा लिया और दिया बहुत-बहुत कम

मर गया देश, अरे जीवित रह गये तुम…”

— यह मुक्तिबोध का जन्मशती वर्ष है. 13 नवंबर 1917 को हिंदी के इस अप्रतिम कवि का जन्म हुआ था. आने वाले कुछ अंकों में हम आपको मुक्तिबोध की कुछ कविताओं से रूबरू करायेंगे.