कुछ दिन पहले ‘ट्वल्व इयर्स ए स्लेव’ नामक किताब पढ़ने का मौका मिला. यह अमेरिका में रहने वाले एक काला आदमी, सोलोमन नार्थब के बारह साल के गुलामी के जीवन की कहानी है, जिसको उसने खुद लिखा था. सोलोमन नार्थब उत्तरी अमेरिका में रहने के कारण एक स्वतंत्र व्यक्ति था. 40 वर्ष की उम्र का यह व्यक्ति अपनी पत्नी तथा तीन बच्चों के साथ उत्तरी अमेरिका के एक शहर सरोटोगा में खुशहाल जीवन व्यतीत कर रहा था. वह खुद लकड़ी के काम में तथा वायलिन बजाने में कुशल था और उसकी पत्नी पाक विद्या में निपुण थी. उन दोनों को अपने कामों से इतनी आमदनी हो जाती थी कि वे अपना जीवन ठीक ठाक चला लेते थे. उनकी इस खुशहाल जीवन में व्यवधान तब आया जब दक्षिण अमेरिका के गुलामों के दो व्यापारी उसे धोखे से दक्षिण अमेरिका की लाल नदी के किनारे उस जगह पर ले जाते हैं जहां कई ऐसे गोरे अमेरिकी रहते थे जो गुलामो को खरीदते थे. लाल नदी के किनारे पाईन और ओक वृक्षों का जंगल था. दलदली जमीन जो कि गन्ने और कपास की खेती के लिए बहुत ही उपजाउ होती थी. उन्हीं खेतों के गोरे मालिक गुलामों से कपास और गन्ने की खेती करवाते थे. जंगलों से लकड़ी काटने का काम भी होता था. सोलमन को जब यहां लाया गया तो उसका नाम बदल कर प्लाट कर दिया गया. और सरकारी अनुमति पत्र में उसे एक गुलाम बताया गया. सोलमन को जब तक इन व्यापारियों की वास्तविकता का पता चलता, तब तक वह बिक चुका था. उसने चीख-चीख कर अपना परिचय देना चाहा तो उसे कोड़ों से मार कर चुप करा दिया गया.

प्लाट अच्छी तरह समझ गया था कि गुलामी के जीवन का अर्थ है चुप रहना. अपने किसी भी भावना को व्यक्त नहीं करना. सुबह से लेकर देर रात तक काम करना. मालिक से मिले मोटे अनाज का रोटी बना कर खाना और केवल एक कंबल में रात गुजारना. यदि वह कोई प्रश्न पूछता तो उसका उत्तर चाबुक से ही मिलता. अपराध हो या न हो, चाबुक की मार सहना और घायल शरीर को लेकर खटना ही गुलामी थी. भागने का प्रयास करे तो कुत्तों का शिकार होना पड़ता था और फिर बंदी बन कर लौटना ही पड़ता. वहां के किसी भी गोरे आदमी को यह अधिकार था कि वह किसी भी गुलाम को खेतों से बाहर देख ले तो उसका नाम पता पूछ कर उसे मालिक के पास पहुंचा दे. प्लाट का पहला मालिक धार्मिक प्रवृत्ति का आदमी था. वह अपने गुलामों को बाईबल पढ़ कर सुनाता था और जीसस को ही उनका उद्धारक बताता था, लेकिन अपने गुलामों के काम में कोई कमी नहीं करता था. उनके खानपान या रहन-सहन को सुधारने में उसकी कोई दिलचस्पी नहीं थी. फिर भी प्लाट उसे अच्छा मालिक का दर्जा देता था, क्योंकि बाद के उसके दो मालिक इतने क्रूर थे कि प्लाट उनकी अमानवीयता की कल्पना तक नहीं कर पाता था. अपने तथा अपने साथी गुलामो की पीड़ा, दर्द और कठिनाईयों को देखते हुए भी वह कुछ नहीं कर पा रहा था. गुलाम महिलाओं के साथ तो जुल्म की कोई इंतहा नहीं थी. उनके साथ बलात्कार, बलात्कार से इंकार पर क्रूरता पूर्वक कोड़ों से पिटाई, उनके बच्चों को उनसे अलग रखना. प्लाट तो आजादी का मतलब जानता था, लेकिन दूसरे गुलाम इस शब्द से भी अपरिचित थे.

इस तरह गुलामी के कठिनतम बारह साल बिताने के बाद एक नेक गोरे इंसान की मदद से वह अपनी गुलामी से मुक्त हो कर अपने परिवार के पास वापस लौटता है.

यह कहानी 1841 से 1853 तक के बारह वर्ष की है जो अमेरिका जैसे महान देश में गुलामी के त्रासद दृश्य को प्रस्तुत करता है. 19वीं शताब्दी में इस किताब के कई संस्करण प्रकाशित हुए. बाद के सौ वर्षों तक यह किताब लोगों के नजरों से विलुप्त रही. 1960 ई. में लूसियाना के दो इतिहासकारों ने इस किताब को खोज निकाला. पुनः प्रकाशित करवाया. बाद में इस पर आधारित इसी नाम से फिल्म भी बनी जो आस्कर विजेता रही.

समय के साथ यह आशा की जाती है कि मनुष्य मानसिक विकास के उस स्तर पर पहुंच जायेगा जहां मनुष्य और मनुष्य के बीच कोई अंतर नहीं होगा. समय के बदलाव के साथ मनुष्य ने अपने लिए चाहे जितनी भी भौतिक सुख साधनों को जुटा लिया हो, लेकिन उसकी मानसिक विकृतियों में कोई बदलाव नहीं आया. अमेरिका का रंग भेद हो या भारत का जाति भेद, इसमें कोई कमी नहीं आई. गुलामी के समाप्त होने के बाद भी अमेरिका में रंगभेद से उत्पन्न घृणा कई रूपों में व्यक्त होता ही रहता है. भारत में अमेरिका जैसी गुलामी तो नहीं, फिर भी दबंग तथा आर्थिक रूप से संपन्न लोगों ने अपनी सेवा के लिए एक बड़े तबके को दलित बनाया. उससे अपना मैला ढुलवाना और मृत पशुओं का खाल खिंचवाना, लेकिन उसे दलित कह कर दुत्कारना और अपमान करना अभी भी कायम है. साधनों के अभाव में निकृष्टतम काम करने को बाध्य यह जाति आज भी घृणा की पात्र है. उनको हिंदू बन कर रहना है, लेकिन मंदिरों में जाना वर्जित है. शोषण से मुक्ति के लिए दूसरे धर्म को स्वीकार करे तो जबरन उनकी घर वापसी होगी. उन्हें अच्छे कपड़े नहीं पहनने हैं. चप्पल पहन कर या पगड़ी बांधकर ठाकुरों के पास नहीं जाना है. शादी में घोड़ी पर नहीं चढ़ना है. ये सारी पाबंदिया अभी भी उन पर हैं. संविधान द्वारा प्राप्त आरक्षण का अधिकार जिसको उन्होंने संघर्ष कर प्राप्त किया था, वह भी उनके लिए भीख समझा जाता है. अब तो यह भी कोशिश हो रही है कि उन पर अन्याय करने वालों को किसी प्रकार की सजा भी नहीं मिले.