किसी आदिवासी गांव से गुजरती कविता में

कुछ लोग ढूंढ़ रहे हैं

नदी में नहाती किसी आदिवासी स्त्री की नंगी पीठ

एक कपड़े में लपेट अपनी पूरी देह

भीगी- भीगी सी घर लौटती कोई जवान लड़की

कुछ ढूंढ़ रहे कविता में अब घोटुल

धुमकुड़िया, गितिज ओढ़ा:

और आग के इर्द-गिर्द रातभर नाचते लोग

पीली रोशनी में सोने सा चमकता सीना

और चिंगारी सी कोई अल्हड़ हंसी

सुबह चुप सी दीवार के पीछे

डरी लड़की की बाहर झांकती दो आंखें

जो किसी अजनबी को देख

घुस जाती हैं घर के अंदर

जब वह धीरे-धीरे निकलती है

हंसती है बतियाती है

और बात-बात में हंसते हुए

उसका कंधा छू लेती है

तब वह समझता है

बहुत सस्ती है यह सहजता

और पलटकर फेरने लगता है

अपनी अंगुलियां उसकी पीठ पर

सालों बाद भी अपनी भूखी नींद में

वह ढूंढता है उस लड़की की पीठ

बात-बात पर कंधा छू लेते उसके हाथ

कोई अल्हड़पन

कोई सहजता

जिसे वह हमेशा सस्ती ही रहा समझता

नींद से जाग वह चकराता है

अब किसी कविता में उसे

ऐसी कोई लड़की नहीं मिलती

कविता चलाती है उसकी पीठ पर हंसिया

तोड़ देती है उसकी गंदी अंगुलियां

और चीख़ती है

बंद करो कविता में ढूंढना आदिवासी लड़कियां ।।