आज केबुल और उपग्रह चैनलों से छन कर टी-वी- के पर्दे पर खबरों, धारावाहिकों, फिल्मों और विज्ञापनों के जरिये जो दृश्य-दर-दृश्य आंखों के सामने आ रहा है, उसका समग्र और विराट बिम्ब यही है। उसका क्या अर्थ है और उससे क्या अनर्थ हो रहा है, इसकी पटकथा तो बीसवीं सदी के अन्तिम दशक के अन्तिम दिनों में लिखी जा चुकी थी। उस वक्त के तीन दृश्य-दृष्टांत यहां प्रस्तुत हैं। ये दृश्य इतने पुराने भी नहीं हुए और इतने घिस भी नहीं गए हैं कि देश के तमाम दर्शक भूल गए होंiii। i

एकः धारावाहिक चल रहा है। युद्ध का दृश्य है। हिंसा का हमला हो रहा है। घोटालों में घिरे राजनीतिज्ञ, अंडर वर्ल्ड के गिरोह और निजीकरण की विदेशी कारों में सवार उद्योगपतियों के बीच जंग छिड़ी है। ए-के- 47 से गोलियां बरस रही हैं। कोई चीखता है। ब्रेक! दृश्य बदल गया है। चंद युवा भूख हड़ताल पर बैठे हैं। मॉड और ऊबे हुए सुखी! कुछ खुलने की आवाज होती है। एक युवक की भूखी-प्यासी आंखों में चमक पैदा होती है। वह देखता है कि भूख हड़ताल पर बैठी एक खूबसूरत लड़की भूख हड़ताल की तख्ती के पीछे छिपकर खूबसूरत अंदाज में खास स्वाद का महंगा टॉफी चूस रही है। टॉफी चभलाते हुए परमानन्द का अनुभव कर रही है। बीच में वह अगल-बगल झांकती है कि कोई उसे देख तो नहीं रहा। उसकी नजर युवक से टकराती है। वह जान जाती है कि युवक ने उसकी चोरी पकड़ ली। लेकिन उसने यह भी देख लिया कि युवक की प्यासी आंखें उसके चेहरे पर और भूखी नजरें उसके टॉफी पर है। वह हंसकर अपना बैग खोलती है - ढेर सारे टॉफी बाहर झांकते हैं।

भूख हड़ताल की तख्ती के पीछे छिपकर टॉफी खाने के बाद युवती कुछ अतिरिक्त खुश और संतुष्ट दिखती है तथा दूसरे ही पल विजयी मुद्रा में बेफिक्र होकर भूख हड़ताल की तख्ती नीचे कर देती है। ब्रेक खत्म! फिर मूल धारावाहिक का दृश्य टीवी देखते दर्शकों पर गोलियां चलाने लगता है।

भारत में आजादी के संघर्ष में गांधी बाबा ने सत्याग्रह हथियार का आविष्कार किया था। भारतीयों ने सीखा-समझा कि भूख हड़ताल उसी सत्याग्रह का एक रूप है। सत्याग्रह तोप तो भूख हड़ताल बंदूक! टीवी चैनलों के गला काट होड़ का दृश्य-व्यापार बता रहा है कि भूख हड़ताल रसास्वादन का हथियार है! भारत की भूखी जनता, जो अब अपनी भूख मिटाने के संघर्ष के लिए भी भूख हड़ताल करने की ताकत नहीं रखती, टीवी का यह दृश्य देखकर चकित है कि वह किस संस्कृति का साथ दे। उस संस्कृति का, जो भूख को हथियार बनाकर भी भूख से लड़ नहीं पाती या उस संस्कृति का, जो भूख से लड़ने के हथियार को ऐसे स्वाद का जरिया बनाती है जिसे ‘भरा पेट’ ही चख सकता है?

दोः टीवी के पर्दे पर विश्व सुंदरी प्रतियोगिता का सीधा प्रसारण हो रहा है। पर्दे के अन्दर सुंदरता निहारने की आदी भारतीय आंखें देख रही हैं - सुंदरता को नापने का नया पैमाना। इसमें निरावरण होना काम्य है। जो अपनी सुंदरता को नपवाना चाहता है उसके लिए भी और जो सुंदरता को नापना चाहता है उसके लिए भी। अगले दृश्य में देखनेवालों का यह बोध जगने ही वाला है कि पर्दे में देखो या बेपर्दा देखो, यथार्थ यह है कि सभी सुंदरता के शिकारी हैं। शिकारी न हो तो सुंदर होने का एहसास नहीं जगता। और तो और, शिकारी आंखों से देखने पर ही सुंदरता को चखने का असली मजा मिलेगा। यही आनंद का उत्कर्ष है!

तभी संगीतमय ‘कट’ होता है। अजंता-एलोरा की मूर्तियों की प्रतिमूर्ति सी आभूषित-विभूषित युवती की बच्ची जैसी आवाज आती है - छोटा सा ब्रेक! विज्ञापन का दृश्य आता है। भारतीय नृत्य-परिधान में बंधी युवती भरतनाट्यम कर रही है। उसको देख दर्शकों में शामिल युवक यानी टीवी विज्ञापन का युवक उत्तेजित है। युवती की नाट्य मुद्राएं उसे संकेत दे रही हैं। युवक उन मुद्राओं का अनुसरण करते हुए जेब से विशेष ब्रांड का टॉफी पैकेट निकालता है। पैकेट का कवर बोलता है। टॉफी निकालता है। उसको टुकड़ों में बांटता है। एक टुकड़ा अपने मुंह में डालता है और उद्रेक में उठकर झूमने लगता है। उसने युवती का संकेत चख लिया। युवती खुश कि उसका नृत्य सार्थक हुआ। ब्रेक खत्म!

और, विश्व सुन्दरी प्रतियोगिता के दृश्य हाजिर। नेपथ्य में सुन्दरियां ड्रेस बदल रही हैं। इसलिए बीच में भारत की महान् संस्कृति के भव्य प्रदर्शनों का ‘फिलर’ डाला गया है। कथकली, ओडिसी, कत्थक, कूचिपूडि़, गरबा, भांगड़ा, भरतनाट्यम। उद्घोषिका बता रही है - ‘ये सारे नृत्य भारतीय संस्कृति की जिन्दा तस्वीरें हैं।’ घरों में टीवी के सामने बैठे दर्शक चकित-मुग्धभाव से इस कार्य-व्यापार को देखते हुए समझने की कोशिश में हैं कि भारतीय संस्कृति के ये नृत्य-रूप आज तक जिन्दा कैसे हैं और क्यों हैं?

वैसे, इसके बाद फिर-फिर ब्रेक होता है। बीच में एक भारतीय साधु योगासनों की मुद्रा सिखाते हुए बताते हैं कि ‘ब्रेकासन’ की विधि क्या है। खास ब्रांड का टॉफी खाने के लिए ब्रेकासन कितना जरूरी है? धीरे-धीरे प्रतियोगिता आयोजन के दृश्य और विज्ञापनों के दृश्यों का ‘ब्रेक’ इतने झटके देता है कि सब कुछ गड्डमड्ड हो जाता है। आयोजन विज्ञापन लगने लगता है और विज्ञापन आयोजन। उसके बीच भारतीय संस्कृति की परकटी चिडि़या पंख फड़फड़ा कर आसमान में उड़ान भरने के गीत गाती है।

तीनः मिनट-मिनट के समाचार विभिन्न चैनलों से प्रसारित हो रहे हैं। जितने समाचार उतने ही विज्ञापन! एक अंग्रेजी चैनल में समाचार वाचक कहता है - ‘भारत के प्रधानमंत्री हिंदी जानते हैं, समझते हैं लेकिन बोलने में कठिनाई महसूस करते हैं। अंग्रेजी बोलने में वह अंग्रेजों के कान काटते हैं।’ एक हिंदी चैनल बताता है - ‘इंडिया के पिछले प्राइमिनिस्टर ने प्रॉमिस किया था कि वे तीन महीने के अन्दर हिन्दी लैंग्वेज सीख लेंगे ताकि जनता से कम्यूनिकेट करना आसान हो।’ दोनों चैनलों में सूचना के साथ ही पर्दे पर ‘जिंगल्स’ आते हैं, जिनमें भाषा भूमंडलीकरण की खुशी में लचकती है, घायल होती है लेकिन ‘ब्रेक डांस’ करती है। हिन्दी का खाने और हिन्दी जीने वाला भारतीय दर्शक चकित है कि हिन्दी को इस तरह नचाने और टांग तुड़वाने के लिए मजबूर करने का अधिकार किसी को कैसे मिल गया?

अपनी संस्कृति ब्रेक होने की दुहाई देने वाले चिल्ला रहे हैं - ब्रेक संस्कृतिवालों ने हमारी चिड़िया को गुलाम बना लिया। ब्रेक संस्कृति वाले हंसकर कह रहे हैं - ‘आपने संस्कृति की चिड़िया को कैद कर रखा था। हमने आजाद किया।’