तुम्हारे जदुर गीत सुनकर

झूमती नहीं है स्वर्णरेखा, मयूराक्षी, कोयल, कारो और न कन्हर

और न ही तुम्हारे

नगाड़ों,ढोलों, मांदरों, की ताल से ताल मिलाकर गाता है दामोदर

क्योंकि इन सारी नदियों के

बंध गये हैं हाथ—पैर या बंध रहे हैं

छड़,सीमेंट की जंजीरों से

ताकती है आशा भरी निगाहों से

आज स्वर्णरेखा, कोयल, कारो, दामोदर, मयूराक्षी

तुम्हारे जंग लगे तीरों की ओर

और तुम हो कि गिटार की धुन पर

मटका रहे कुल्हे

थिरका रहे पांव —सरहुल के जुलूस में

मिलेगा नहीं इससे तुमको

कभी आत्मबल

और न होगा कभी इससे तुम्हें अपने अस्तित्व का ज्ञान

बेहतर हो रचो नया कोई गीत जादुर

कैद होती स्वर्णरेखा, कोयल, कारो, कन्हर, दामोदर की मुक्ति का

स्वयं को जानने—पहचानने का

और जंग लगे तीरों पर

नयी धार लाने का.

महादेव टोप्पो की नई किताब ‘जंगल पहाड़ के पाठ’ से.