किसी जीवंत धर्म के जीवन में शायद दो हजार वर्षों का कोई महत्व न हो. कारण, यद्यपि गाने को तो हम गाते हैं – ‘ऊपर बैठे ईश्वर की जय हो, धरती पर शांति की जय हो’,परंतु आज न तो ईश्वर की जय दिखाई देती है और न शांति की.

बाइबिल से मेरा परिचय आज से लगभग पैंतालीस वर्ष पूर्व आरम्भ हुआ; और वह ‘नयाकरार’के माध्यम से आरम्भ हुआ. तब तक मैं ‘पुराना करार’में रस नहीं ले सका था, हालांकि उसे एक मित्र से, जिनसे मेरी भेंट एक होटल में हुई थी, किये वादे को पूरा करनेके लिए ही सही, मैं पढ़ अवश्य गया था. लेकिन जब मैं ‘नया करार’पढऩे लगा और उसके ‘गिरि-प्रवचन’पर आया तो मैं ईसा मसीह के उपदेशों को समझने लगा. ‘गिरि-प्रवचन’में मुझे उसी चीज की प्रतिध्वनि सुनाई दी, जो मुझे बचपन में सिखाई गई थी और जो मुझे मेरे अस्तित्व का अभिन्न अंग-सा प्रतीत होती थी तथा मेरे आसपास के जीवन मेंप्रतिदिन आचरण में उतारी जाती जान पड़ती थी.

मैंने कहा, ‘जान पड़ती’ थी. इससे मेरा तात्पर्य यह है कि मेरे इर्द-गिर्द के जीवन में ठीक उस उपदेश के ही अनुसार आचरण किया जा रहा है, यह देखना मेरे मतलब केलिए जरूरी नहीं था. यह उपदेश था - मन में प्रतिशोध की भावना न रखना या बुराई का विरोध न करना. मैंने जितना कुछ पढ़ा उसमें से जो बात मेरे मन में जम गई, वह यह थी कि ईसा विश्व को लगभग एक नया नियम देने आये थे. हालांकि उन्होंने कहा था कि मैं कोई नया नियम देने नहीं आया हूं, बल्कि मूसा के पुराने नियम में ही कुछ जोड़ने को आया हूं. बहरहाल, उन्होंने उस पुराने नियम में कुछ परिवर्तन अवश्य किया और उस परिवर्तन के परिणामस्वरूप ‘आंख के बदले आंख निकाल लो, दांत के बदले दांत तोड़ दो’ के स्थान पर एक नया नियम आरम्भ हुआ कि कोई एक तमाचा लगाये तो उसे दूसरा लगाने को आमंत्रित करो, एक मील चलने को कहे तो दो मील चलने को तैयार रहो. मैंने अपने मन में कहा : ‘निश्चय ही यह तो वही है, जो हम अपने बचपन में सीखते हैं. किंतु यह तो ईसाई धर्म नहीं है.’ कारण, तब मैंने यही सुन रखा था कि ईसाई धर्म का अर्थ एक हाथ में ब्रांडी की बोतल और दूसरे में गोमांस रखना ही है. लेकिन ‘गिरि-प्रवचन’ ने मेरी इस धारणा को झूठा साबित कर दिया.

जैसे-जैसे सच्चे ईसाइयों अर्थात् ईश्वर से डरकर चलनेवालों से मेरा सम्पर्क बढ़ता गया, मुझे मालूम होता गया कि जो सच्चे ईसाई का जीवन व्यतीत करना चाहता है, उसके लिए सारी ईसाइयत का सार ‘गिरि-प्रवचन’में आ जाता है. उसी प्रवचन के कारण ईसा मेरे प्रिय हो गये.

मैं यह बता दूं कि ऐतिहासिक ईसा में मेरी कभी कोई रुचि नहीं रही. अगर कोई यह सिद्ध कर दे कि ईसा नाम का कोई आदमी कभी हुआ ही नहीं और धर्मग्रंथ में जिसका वर्णन किया गया है, वह लेखक की कल्पना की उपज है, तो उससे मेरे लिए कोई फर्क पडऩे वाला नहीं है. क्योंकि ‘गिरि-प्रवचन’तो मेरे लिए तब भी सत्य ही रहेगा. तो सारी कहानी को इस दृष्टि से पढ़ते हुए मुझे लगा कि अभी तक तो ईसाई धर्म का आचरण नहीं किया जा सका है. हां, अगर कोई यह कहे कि जहां कहीं असीम प्रेम और प्रतिशोध की भावना का सर्वथा अभाव देखने को मिलता है वहां ईसाई धर्म के ही दर्शन होते हैं तो बात दूसरी है. लेकिन तब तो इसे किसी सीमा में नहीं बांधा जा सकता, किसी ग्रन्थ में दिये उपदेश की परिधि में नहीं रखा जा सकता. तब वह ऐसी चीज बन जाता है जिसकी कोई व्याख्या नहीं की जा सकती, जिसका उपदेश किसी को नहीं दियाजा सकता, जिसे मुंह से बोलकर एक दूसरे तक नहीं पहुंचाया जा सकता, बल्कि अगर पहुंचाया जा सकता है तो एक हृदय से दूसरे हृदय तक ही. किंतु आम तौर पर ईसाई धर्म को इस रूप में नहीं समझा जाता है. ईश्वर की कृपा से ईसाइयों ने - तथाकथित ईसाइयों ने - बाइबिल को किसी न किसी तरह नष्ट होने से बचा लिया है. ब्रिटिश ऐंड फॉरिन बाइबिल सोसाइटी ने कई भाषाओं में इसका अनुवाद करवाया है. यह सब भविष्य में कोई सच्चा उद्देश्य साध सकता है. किसी जीवंत धर्म के जीवन में शायद दो हजार वर्षों का कोई महत्व न हो. कारण, यद्यपि गाने को तो हम गाते हैं – ‘ऊपर बैठे ईश्वर की जय हो, धरती पर शांति की जय हो’,परंतु आज न तो ईश्वर की जय दिखाई देती है और न शांति की.

जब तक यह पिपासा तृप्त नहीं होती, तब तक यही मानना चाहिए कि ईसा धरित्री पर अवतरित नहीं हुए हैं, अभी हमें उनके अवतार की प्रतीक्षा करनी है. जब सच्ची शांति स्थापित हो जायेगी, तब हमें प्रदर्शनों की आवश्यकता नहीं रह जायेगी, तब वह हमारे जीवन में - व्यक्तिगत जीवन में ही नहीं, बल्कि सामूहिक जीवन में भी प्रतिध्वनित होगा. तब हम कह सकेंगे, हां, धरित्री पर ईसा अवतरित हो चुका है. तब हम वर्ष में किसी एक विशेष दिन को ईसा का जन्म-दिवस नहीं मानेंगे, बल्कि उसके जन्म को सतत घटित होती रहने वाली एक ऐसी घटना मानेंगे जो हर मनुष्य के जीवन में आचरित हो सकेगी.

मैं धर्म के इस मूल तत्व का जितना अधिक विचार करता हूं, एक के बाद एक युग तथा एक के बाद एक देश में जन्म लेने वाले धर्मगुरुओं की अद्भुत कल्पनाओं के विषय में जितना अधिक सोचता हूं, मेरे सामने यह बात उतनी ही अधिक स्पष्ट होती जाती है कि उन सबके पीछे वही शाश्वत सनातन सत्य है, जिसका वर्णन अभी मैंने किया है. इस सत्य को किसी छाप या घोषणा की जरूरत नहीं है. वह तो जीवन में जीने की चीज है, ऐसी चीज जो बिना रुके निरंतर शांति की दिशा में आगे बढ़ती जाती है.

इसलिए जब हम किसी के लिए ‘बड़े दिन’ की शुभकामनाएं उसके अर्थ को बिना समझे करते हैं, तो वह एक थोथा फार्मूला ही बनकर रह जाता है. और, जब तक हम संपूर्ण सृष्टि के लिए शांति की कामना नहीं कर सकते, तब तक स्वयं अपने लिए उसकी कामना नहीं कर सकते. यह तो यूक्लिड के स्वयं सिद्ध सिद्धांत की तरह एक स्वयंसिद्ध बात है कि जब तक हममें चतुर्दिक शांति की उत्कट अभिलाषा नहीं होगी, तब तक स्वयं हमको शांति नहीं मिल सकती. आप बेशक संघर्ष के बीच भी शांति का अनुभव कर सकते हैं, लेकिन वह तभी हो सकता है जब आप उस संघर्ष को दूर करने के लिए अपने संपूर्ण जीवन को नष्ट कर दें, अपने प्राणों की बलि चढ़ा दें. और, इसलिए जिस प्रकार ईसा का चमत्कारपूर्ण जन्म एक शाश्वत घटना है, उसी प्रकार इस झंझावातों से भरे जीवन में शूली पर चढऩा, आत्म-बलिदान करना भी एक शाश्वत घटना है. इसलिए हमें आत्मोत्सर्ग का विचार किये बिना जन्म का विचार नहीं करना चाहिए. ईसा के समान जीवन व्यतीत करने का मतलब है सतत्बलिदान का जीवन व्यतीत करना. इसके बिना जीवन सतत्मृत्यु है.