सीता के पिता सीरध्वज इक्कीसवें जनक थे. दर्शन संबंधी विमर्श के आयोजनों में यज्ञवालक्य के साथ मैत्रेयी और गार्गी जैसी विदुषी स्त्रियों की भागीदारी जनक के स्त्री-स्वतंत्रता को दर्शाती है. उन्हें या उनके किसी पूर्वज को लौह आविष्कार का भी श्रेय दिया जाता है. ऐसे वैज्ञानिक चिंतक और दार्शनिक पिता और माता सुनयना की परवरिश में बड़ी हुईं सीता को क्या जनक-सुनयना के व्यक्तित्व का दसांश भी न मिला होगा! वाल्मीकी द्वारा सीता को भी अपेक्षाकृत कम स्थान दिया गया है, लेकिन जो भी दिया गया है, वह अतुलनीय है.

सीता के बारे में राम का पहला वक्तव्य कैकेयी के सामने तब आता है, जब कैकेयी राम को बुलवाकर, उनसे राजा द्वारा भरत को राज्य और राम को वनवास दिए जाने का आदेश सुनाती हैं. इसकी प्रतिक्रिया में अत्यंत विनम्रता के साथ राम कहते हैं, ‘यद्यपि मैं केवल तुम्हारे कहने से भी अपने भाई भरत के लिए सीता को, इस राज्य को, प्यारे प्राणों को तथा सारी संपत्ति को भी स्वयं ही दे सकता हूँ, फिर यदि पिता आज्ञा करें, वह भी तुम्हारा प्रिय करने के लिए, तो मैं उनके द्वारा की गई प्रतिज्ञा का पालन क्यों नहीं करूँगा!’ “अहं हि सीतां राज्यं च प्राणानिष्ठानि धनानि च/ हृष्टो भ्रात्रे स्वयं दद्यां भरताय प्रचोदित:// (अयोध्याकांड, सर्ग-19, श्लोक-7). इस प्रकार राम सीता को अपनी संपत्ति मानकर उन्हें, बिना उनसे पूछे, भरत को देने का प्रस्ताव कर रहे हैं.

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दूसरी बार, राम अपने वन जाने की सूचना सीता को देते हुए कहते हैं,‘इस समय मैं वन में जाने के लिए प्रस्थान कर रहा हूँ. तुम भरत के समीप कभी मेरी प्रशंसा मत करना…. तुम भरत के सामने मेरे गुणों की प्रशंसा मत करना. सीते! राजा ने उन्हें सदा के लिए युवराज पद दे दिया है, इसलिए तुम्हें विशेष यत्नपूर्वक उन्हें प्रसन्न रखना चाहिए, क्योंकि अब वे ही राजा हैं.…अत: कल्याणि! तुम राजा भरत के अनुकूल बर्ताव करती हुई धर्म एवं सत्यव्रत में तत्पर रहकर यहाँ निवास करो.’ (सर्ग-26)

इसके उत्तर में सीता कुपित होकर कहती हैं, ‘राम! मेरे पिता आपके साथ मेरे व्याह के समय क्या यह जानते थे कि आपके पुरुष शरीर के भीतर एक स्त्री का वास है? नरश्रेष्ठ राम! आप मुझे ओछी समझकर यह क्या कह रहे हैं! आपने जो कुछ कहा है, वह अस्त्र-शस्त्रों के ज्ञाता वीर राजकुमारों के योग्य नहीं. वह अपयश का टीका लगानेवाला होने के कारण सुनने योग्य भी नहीं. पिता, माता, भाई, पुत्र और पुत्रवधू- ये सब पुण्यादि कर्मों का फल भोगते हुए अपने-अपने भाग्य के अनुसार जीवन-निर्वाह करते हैं. पुरुषप्रवर! केवल पत्नी ही अपने पति के भाग्य का अनुसरण करती है. आपको किस बात का डर है! क्या आपको विश्वास नहीं कि मैं आपके प्रति निष्ठावान नहीं हूँ? यदि आप मुझे अपने साथ ले जाते हैं तो मैं आपके सिवाय किसी दूसरे पुरुष की ओर आँख उठाकर भी नहीं देखूँगी- मैं ऐसी औरतों की तरह नहीं हूँ. लेकिन आप तो ऐसे मनुष्य दिखाई दे रहे हैं जो मुझे दूसरे लोगों के हाथ में दे देना चाहते हैं, जबकि मैं आपके पास मैं आपके पवित्र कौमार्यावस्था में आई थी और तब से आप ही के प्रति निष्ठावान रही हूँ. … मुझे किसके साथ कैसा बर्ताव करना चाहिए, इस विषय मे मेरी माता और पिता ने मुझे अनेक प्रकार की शिक्षा दी है. इस विषय में मुझे कोई उपदेश देने की आवश्यकता नहीं है.’

सीता के इस उत्तर के बाद राम लीपापोती करते हुए कहते हैं कि उन्होंने सीता के मन की थाह लेने के विचार से यह सब कहा था.(सर्ग-27/ वेन्डी डोनियर: द हिंदूज: ऐन आल्टरनेटिव हिस्ट्री).

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तीसरा प्रसंग: लंका में रावण के मरने के बाद; लक्ष्मण, समस्त वानरों और राक्षसों सहित विभीषण, हनुमान, सुग्रीव, जामवंत आदि की उपस्थिति में; सीता को संबोधित करते हुए राम का एक लंबा, कठोर और अति निर्मम वक्तव्य है, जिसका एक अंश यहाँ दिया जा रहा है, ‘भद्रे! समरांगण में शत्रु को पराजित करके मैंने तुम्हें उसके चंगुल से छुड़ा लिया है. अब मेरे अमर्ष का अंत हो गया है….. तुम्हारा कल्याण हो! तुम्हें मालूम होना चाहिए कि मैंने जो यह युद्ध का परिश्रम उठाया है तथा इन मित्रों (हनुमान, सुग्रीव आदि) के पराक्रम से जो इसमें विजय पायी है, यह सब तुम्हें पाने के लिए नहीं किया गया है. सदाचार की रक्षा, सब ओर फैले हुए अपवाद का निवारण तथा अपने सुविख्यात वंश पर लगे हुए कलंक का परिमार्जन करने के लिए ही यह सब मैंने किया है. तुम्हारे चरित्र में संदेह का अवसर उपस्थित है, फिर भी तुम मेरे सामने खड़ी हो! जैसे आँख के रोगी को दीपक की ज्योति नहीं सुहाती, उसी प्रकार आज तुम मुझे अत्यंत अप्रिय जान पड़ती हो. अत: जनककुमारी! तुम्हारी जहाँ इच्छा हो, चली जाओ. मैं अपनी ओर से तुम्हें अनुमति देता हूँ. भद्रे! ये दसों दिशाएँ तुम्हारे लिए खुली हैं.

अब तुमसे मेरा कोई प्रयोजन नहीं. कौन ऐसा कुलीन पुरुष होगा जो तेजस्वी होकर भी दूसरे के घर में रही हुई स्त्री को केवल इस लोभ से कि यह मेरे साथ बहुत दिन तक सौहार्द स्थापित कर चुकी है, मन से भी ग्रहण कर सकेगा! रावण तुम्हें गोद में उठाकर ले गया और तुम पर अपनी कुदृष्टि डाल चुका है, ऐसी दशा में अपने कुल को महान बताता हुआ मैं फिर तुम्हें कैसे ग्रहण कर सकता हूँ! अत: जिस उद्देश्य से मैंने तुम्हें जीता था वह सिद्ध हो गया. अब मेरी तुम्हारे प्रति मेरी आसक्ति नही है, अत: तुम जहाँ जाना चाहो, जा सकती हो. भद्रे! तुम चाहो तो भरत या लक्षमण के साथ सुखपूर्वक रह सकती हो. सीते! तुम्हारी इच्छा हो तो तुम शत्रुघ्न, वानरराज सुग्रीव अथवा राक्षस विभीषण के पास भी रह सकती हो. जहाँ तुम्हें सुख मिले, वहीं अपना मन लगाओ. सीते!

तुम जैसी दिव्यरूप-सौंदर्य से सुशोभित मनोरम नारी को अपने घर में देखकर रावण चिरकाल तक तुमसे दूर रहने का कष्ट नहीं सह सका होगा……’