भारत में सभ्यताओं को जन्म देने का श्रेय आदिवासियों/ अनार्य जातियो को दिया जाना चाहिये। अनार्य आदिवासियों ने जीवो एवं पर्यावरण को बचाया। समाजवाद , स्त्री पुरुष मे समानता, समतामूलक समाज की अवधारणा एवं लोकतांत्रिक ग्राम व्यवस्था ( परगना व्यवस्था , मुंडा मानकी , पड़हा राजा व्यवस्था , दोकलो शोहोर ) आदिवासियों की ही देन थी।

आज इसे प्रमाणित करने कें लिऐ हमारे पास कोई मजबूत साक्ष्य नही है, लेकिन उनकी भाषा , कल्चर एवं वेदों और पुराणो कें माध्यम से उस युग कें इतिहास को समझा जा सकता है जिनको उनके लेखको ने अलंकृत और विभिन्न चरित्रांे के रूप मेँ, जैसे, दैत्य , राक्षस , असुर , गंधर्व , यति , वानर , रीछ , नाग , आदि कें रूप मेँ प्रस्तुत किया था। अगर आदिवासियों कें सामाजिक जीवन का अध्ययन किया जाए तो एक बात यहां स्पष्ट हो जायेगी की वे लोग वैदिक जीवन पद्धति को नही मानते थे। उनका अपना अलग पारम्परिक सामाजिक जीवन शैली है। उनकी अपनी भाषा है। उनका अलग खान पान है। उनके अलग रीति रिवाज हैं जौ प्रकृति से जुड़ा हुआ है। यह अलग बात है कि विभिन्न सभ्यताओ एवं धर्म का प्रभाव आदिवासी समाज पर भी हुआ है और कालांतर मे भारत के आदिवासियो ने उनको अपनाया भी है, लेकिन अगर धर्म के आधार पर उन्हें बांटा गया तो यह अनुचित और अप्रासंगिक होगा, क्योकि कहीं ना कहीं आदिवासी समाज विभिन्न धर्मो को अपनाने के बावजूद भी अपने संस्कृति और भाषाओ को जीवित रखा है। यह उनके जीवनशैली मे दिखता भी है।

इसके विपरीत वैदिक संस्कृति के लोगों में वेदों कें अनुसार उनका संस्कार और जीवन पद्धति, विवाह संस्कार , बच्चो का संस्कार , मृत्यु कें पश्चात का संस्कार एवं उनकी धार्मिक मान्यताएं और उनके नाम ऋषि मुनियों और चक्रवर्ती राजाओ कें नाम पर रखा जाना भारत कें आदिवासियों को उनसे अलग करता है। लेकिन आदिवासियों मेँ उनके नाम का टाइटल उनके टोटेम पर ही आधारित है, नाकि किसी वैदिक ऋषि मुनियों या राजाओ कें नाम पर। मानवशास्त्र एवं समाजशास्त्र कें ज्ञाता भी इस बात का इंकार नही कर सकते की वैदिक काल कें उपरांत भारत मेँ दो तरह की विशेष संस्कृतियों का प्रभाव भारत मेँ रहा है। एक नदियो कें किनारे विकसित हुई सभ्यता और दूसरी गुफाओं और जंगलो मेँ विकसित हुई सभ्यता जो वैदिक सभ्यता से बिल्कुल इतर या भिन्न थी, जिसे भारत कें मूल अनार्य जातियांे की सभ्यता कहा गया। भारत मे आर्य लोगों कें आगमन और उनके साम्राज्य स्थापित करने कें उपरांत उस समयकाल मेँ भारत का नाम आर्यवर्त था। बौद्ध विचारक और अध्ययनकर्ता भारत का सबसे प्राचीन नाम जम्बूद्वीप कें नाम से भी जानते है।

लेकिन विद्वान इतिहासकार यह भूल गए की आर्यो के भारत मे आगमन के पूर्व यानी नव पाषाण काल में यहां अति विकसित सभ्यता थी और इस देश की अपनी अलग पहचान थी जिसे कोयामुरी द्वीप कहा जाता था अर्थात कोया वंशी लोगो का देश जो गुफा मे रहते थे और माता के गर्भ से उत्पन्न हुए। संताली , मुंडारी , हो , खड़िया आदि अनार्य भाषा मे होड़ या होडो शब्द का प्रयोग मनुष्य के लिए किया जाता है।

गोंडी संस्कृति और उसका इतिहास अपने अतीत से पर्दा उठाता है और एक ठोस अवधारणा को स्थापित भी करता है। उनके अनुसार नव पाषाण युग में सतपुड़ा जिसका अर्थ ( सत्ता का केंद्र ) पेंकमेड़ी, यानी (पेंचमेड़ी) कोट के गण्ड प्रमुख कुलीतरा के पुत्र कोसोडूम ने सर्वप्रथम अपना महान साम्राज्य गोंडवाना के पंच द्वीपों में स्थापित किया। इसलिए उन्हें गोंडवाना के गण्ड जीवों ने अनार्य महा सम्राट ‘शंभूकेश्वर’ यानि पंच दीपों के स्वामी की उपाधि से संबोधित किया । वह ‘शंभू मा-दाव’ की संज्ञा से भी जाना जाता था, जिसका अर्थ पंच दीपों का स्वामी होता है। इसी शंभू मा-दाव का अपभ्रंश रूप बाद में आर्य ब्राह्मणों ने विकृत करके ‘शंभू महादेव’ बना दिया है। कुलीतरा के पुत्र कोसोडूम यानी शंभू मा दाव के पश्चात इस पंच खंड दीप (गण्डोदीप) पर सतपुड़ा (सत्ता का केंद्र) के पेंकमेड़ी (पेंचमेड़ी) कोट से अपनी अधिसत्ता चलाने वाले कुल अरुरू (अट्ठाशी) शंभू मादाव हुए। उक्त शंभू मादाव के जमाने में अर्थात शंभू गवरा की जो मध्य की जोड़ी थी, उसके कार्यकाल में पूर्वाकोट के गण्ड प्रमुख पुलशिव - हीरबा के परिवार में रूपोलंग पहान्दी पारी कुपार लिंगो ने जन्म लिया। उसने अपने जीवन काल में संपूर्ण कोयामूरी दीप के कोया वंशीय कोयतुर आदि गण्डजीवों को सगा गोत्र जीवन पध्दति में एक गोंडोला में संरचित किया द्यसभी कोया वंशीय गण्डजीवों ने गोंडोला व्यवस्था के सगावेनों की जीवन पद्धति को स्वीकार किया और वे गोंडोला के निवासी ‘गोंडी सगा वेन’ (गोंडी सगा गोत्रज) बने । इस तरह गोंडोला के सगावेनों की व्यवस्था जिस भू-भाग में फल - फूली वह भूभाग गोंडी सगावेनों का गोंडवाना बना।

ऐतिहासिक और सांस्कृतिक अतिक्रमण के बावजूद भारत के आदिवसियों ने विषम परिस्थियों के बावजूद अपनी विशिष्ट सभ्यता, भाषा परंपरा और संस्कृति को अपने आने वाले पीढ़ियों के लिए मौखिक रूप से संभाल कर रखा है।

आज हमे आदिवासियों कें विशिष्ट भाषा, रीति रिवाजो एवं उनके जीवनशैली के गहन शोध की जरूरत है ताकि भारत कें प्रथम मूल अनार्य जातियों कें खोए हुए इतिहास से पर्दा उठाया जा सके। आदिवासियों का इतिहास उनके कल्चर और कस्टम मेँ ही कही छिपा हुआ है क्योकि उनके पास लिखित रूप मेँ कुछ भी नही है बल्कि ओरल कल्चर और कस्टम हिस्ट्री के रूप मे यह उनकी जीवनशैली मेँ कही समाहित है। और दूसरा प्रमाण वैदिक पुस्तकांे मे दर्ज ह.ै एक बार उनको बड़ी सावधानी से डीकोड करने की जरूरत है।