कनक जी से जुड़ी यादों को शब्दों में बांधना मुश्किल है। उम्र में छोटा होने के नाते मैंने उन्हें हमेशा बड़ी बहन माना। श्रीनिवास जी के साथ करीब दो दशक तक काम करने के कारण उनसे यह रिश्ता कभी-कभार हंसी-मजाक में भी बदल जाता था। श्रीनिवास जी-कनक के साथ साथ रुनू के साथ रिश्ता वैचारिक के साथ पारिवारिक भी था। और अब तो रूनू की प्यारी बेटी कनु के साथ भी स्नेह का रिश्ता बंध गया था।

कनक जी ’संभवा इंजोर’ पत्रिका का संपादन कर रही थीं, तो उसकी कंपोजिंग से लेकर पेज मेकअप का जिम्मा मुझे सौंपा था। कई बार तो दिन भर मेरे घर में बैठ कर वह मुझसे काम कराती थीं, वह भी साधिकार। मेरे घर में कभी उन्हें अतिथि का दर्जा कभी नहीं दिया गया। रसोई से लेकर पेंटिंग तक और वैचारिक चर्चा खूब होती थी, लेकिन अक्सर मुझे संभवा इंजोर पर ध्यान लगाने को कहतीं।

श्रीनिवास जी और मेरी एक आदत समान है और वह है पान खाने की। हम दफ्तर से भी साथ पान खाने को निकलते और बहस करते। मेरे घर में पान की व्यवस्था है, इसलिए श्रीनिवास जी अक्सर मेरे घर आकर पान खाते। हम दोनों कहीं तीसरी जगह भी मिलते, तो पान खाना अनिवार्य था। मेरे यहां पान खाने के दौरान जब कभी हमारे बीच कोई चर्चा छिड़ती, कनक जी का अभिभावक वाला वात्स्ल्य रूप सामने आ जाता। वह झिड़कती थीं- क्या आप लोग पान खाने में समय बर्बाद करते हैं। उनकी झिड़की को हमेशा ही नजरअंदाज किया गया। मेरे प्रति कनक जी के वात्सल्य का ही शायद नतीजा था कि वाहिनी से मेरा संपर्क नहीं होने के बावजूद वह अक्सर मुझे गंभीर विमर्शों में शामिल होने का न्योता देतीं।

कनक जी के बारे में मुझे जो सबसे शानदार चीज लगती थी, वह थी उनका विविध रूप. जब वह हमारे साथ होतीं, तो वैचारिक बातचीत होती, लेकिन मेरी मां के साथ उनकी बातचीत गांव की दो बुजुर्ग महिलाओं की बातचीत जैसी थी, जबकि मेरी पत्नी के साथ उनका व्यवहार दो युवा महिलाओं के बीच की चर्चा के आस पास होता था. इसी बीच मेरी बेटी से वह उसकी सहेली या सहपाठी बन कर बात करती थीं. हमें तो पान खाने के लिए न जाने कितनी बार उनकी मीठी डांट भी खानी पड़ी थी. तब वह एक अभिभावक होतीं. इतने विविध रूपों को एक में समेटना ही उनके पूरे व्यक्तित्व को चमत्कारिक बनाता है. उनसे हर मुलाकात पर एक-एक अध्याय लिखा जा सकता है…

हालांकि यह धार्मिक मान्यता है और मैं इसे नहीं मानता, शायद आप भी नहीं मानते-कि ऐसी ही शख्सियतों को ईश्वर अपने पास जल्दी बुला लेता है, क्योंकि उनकी जरूरत उसे भी होती है. अब कभी-कभी लगता है कि यह सच है और इसे नहीं मान कर हमसे चूक हुई है.

कनक जी को श्रद्धांजलि नहीं दे सकता, क्योंकि उन्होंने अपने जीवन में यही एकमात्र छल किया है, हमारे साथ, अपने साथियों-सहयोगियों के साथ।