उस (दो मई की) मनहूस शाम को वह ‘अंतिम सफर’ पर दूर, बहुत दूर निकल गईं. अकेले. कभी वापस न आने के लिए. मुझे नितांत अकेला, बीच सफर में छोड़ कर. वैसे उनके जीवन के सफर का अंत या ‘निकल जाना’ तो रिम्स में ही हो चुका था, जब साँसों ने साथ छोड़ दिया था. लेकिन मैं यहाँ जिसे श्पार्थिव शरीरश् कहते हैं, उसे शाम कोई साढ़े सात बजे गैस की भट्टी में ले जाये जाने को ‘अंतिम सफर’ कह रहा हूँ. कोविड की विशेष स्थिति के कारण मैं उस शवदाह गृह के अंदर भी नहीं गया. और यह फैसला मुझे बहुत भारी मन से करना पड़ा. हालांकि किसी कर्मकांड और आस्था के आहत होने जैसा कोई भाव नहीं था, फिर भी…

{इसके पहले रिम्स में उनकी ‘देह’ मिलने और जरूरी कागज बनने में हुए विलंब के क्रम में एक सकारात्मक बात हुई. उस फार्म में, जिस आधार पर बाद में मृत्यु प्रमाण पत्र बनता है, मृतक (मृतका) का धर्म दर्ज करने का भी एक कॉलम है. उसमें श्कोई धर्म नहींश् लिखने का आप्शन ही नहीं है. यानी आप या मरने वालाध्वाली इस या उस धर्म के ही हो सकते हैं. लेकिन मैं अड़ गया और अंततः उस कॉलम में कनक का धर्म श्नो रिलीजनश् दर्ज हुआ. इस तरह जीवन भर अनीश्वरवादी और बिना किसी धार्मिक पहचान के रहीं कनक के शव पर भी किसी धर्म का ठप्पा नहीं लगा.}

अब तक के जीवन में लगभग तीस-चालीस अंतिम संस्कार में भाग ले चुकने के बाद, जो गम और उत्सव का मिला जुला अनुभव रहा है, अपनी ही जीवनसंगिनी के शरीर को श्मशान के प्रोफेशनल कर्मियों के हवाले करके लौट आना एक विचित्र और गहरे अवसाद से भरने वाला अनुभव था, जो शेष पूरी जिन्दगी सालता रहेगा.

वैसे उनके शव से दूर रहने का यह अनुभव तो रिम्स कैम्पस से ही शुरू हो गया था. जरूरी कागज बन जाने के बाद कहा गया कि अब मैं नीचे जाकर एम्बुलेंस आदि की व्यवस्था पर ध्यान दूं. मैं नीचे गया. बबलू और विनोद जी थे. इसी बीच उनकी देह को प्लास्टिक बैग में लपेट कर या कहें पैक करके नीचे एम्बुलेंस में रखा जा चुका था. कुछ देर बाद ही एम्बुलेंस खुल गयी. बबलू की कार में हम दोनों पीछे पीछे हरमू पहुँच गये. हमारा नंबर, यानी उनके शव के संस्कार (दाह) का ग्यारहवां है. उस हिसाब से तब सातवीं लाश जल रही थी. अनुमान से अभी दो-तीन घंटे लगने थे. पहले भी कई बार हरमू के इस श्मशान घाट पर आया हूँ, पर कभी एक अनजाने भय में लिपटा हुआ ऐसा सूनापन और ऐसी ‘मरघटी’ शांति का अनुभव नहीं हुआ था. तभी वहां मधुकर और कुमुद पहुंचे. बहुत विलम्ब होगा, कह कर हमने उन्हें वापस भेज दिया. बबलू का फ्लैट पास में है. उसने कहा- चलिए तब तक कुछ खा लेते हैं. सरिता (उसकी पत्नी)) ने बताया कि ब्रेड नहीं है. तब उसे चूड़ा फ्राई करके रखने कहा. हम चलने को ही थे कि तब हेमंत जी, अपनी बेटी शुभांगी के साथ आ गए. हेमंत जी जाने को तैयार नहीं. विनोद जी को उनके पास छोड़ कर हम शुभांगी को लेकर चल दिये. हेमंत जी का आवास बबलू के घर के एकदम पास है, शुभांगी को वहां छोड़ कर हम एपार्टमेंट पहुंचे. कुछ देर बाद सरिता नीचे आयी. उसने वह थाली लाकर नीचे रख दी, जिसमें दो पैकेट भरपूर तेल में भूजा हुआ खास्ता चूड़ा.था. बबलू को खाना नहीं था. मैंने खाया. फिर चाय पीकर हम वापस आये. तब तक दीना भी आ गये थे. किरण जी भी आना चाहती थी, पर दीना जी ने एहतियातन आने नहीं दिया. फिर बलराम एक मित्र दीपक के साथ आये.

इस तरह उनकी अन्त्येष्टि में शामिल लोगों की बात करें, तो अधिकतर उनकेध्हमारे मित्र संगठन से जुड़े साथी ही थे. कुमुद-मधुकर और विनोद जी यूं तो रिश्तेदार हैं, लेकिन उनसे भी हमारा रिश्ता आन्दोलन और संगठन के दिनों से ही रहा है. इस पारिवारिक रिश्तेदारी के पहले से. इनके अलावा दीना, हेमंत जी (शुभांगी) और बलराम, दीपक के साथ, तो सामाजिक रिश्तों के कारण ही वहां थे. ऐसे समय में जब अपने निकट परिजन भी पास आने से हिचकते हैं, या कहें-डरते हैं.

वैसे अपने मूल घर से दूर रह रहे या बस गये मेरे जैसों की यह नियती भी है एक तरह से. अमूमन नयी जगह, जिसे हम अपना लेते हैं, रक्त संबंधियों की संख्या तो कम ही होती है. पड़ोसी और मित्र ही होते हैं, जो आपके सुख दुख में शरीक होते हैं. पर उस दिन कोई पड़ोसी (पड़ोसीध् मुहल्ले के अंदाज पर फिर कभी) भी नहीं था. जो थे, दशकों के साथी थे. एक बबलू था, पुत्रवत. और अब इस जैसा अपने परिवार का सदस्य, अपना निकट रिश्तेदार भी बिरले ही मिलता है.

हेमंत जी को जिद करके हम कुछ पहले ही उनके डेरे पर छोड़ आये. तब हमें याद आया कि हेमंत जी की हमसफर नूतन, जो आंदोलन और संघर्ष वाहिनी की एक जुझारू साथी भी थीं, का निधन भी दो मई को ही हुआ था. कैसा संयोग! मगर हम यह बात उनको कह नहीं सके. बलराम और दीपक को किसी जरूरतमंद मरीज को देखने जाना जरूरी था. वे भी चले गए. अब मेरे अलावा विनोद जी, बबलू और दीना थे. आखिरकार उनकी देह को अंतिम विदाई देकर हम लौट चले.

उनका सफर तो पूरा हो गयाय इधर अपने अनिश्चित, अँधेरे और अधूरे सफर को अकेले पूरा करने को अभिशप्त रह गया मैं. 24 अप्रैल को निकलने के नौ दिन बाद मैं सर्वोदयनगर के उस घर में लौट रहा था, जो उनका था, उनके नाम था, उनकी कल्पना का और उनका ही सजाया-संवारा घर था और है.