डा. राम दयाल मुंडा की यह उक्ति आदिवासी दर्शन का मूल है. आदिवासी प्रकृति से प्रेम करते हैं. प्रकृति के संसर्ग के कारण ही आदिवासी जीवन नृत्य एंव गीत से खिल उठता हैं, ये नृत्य समूह में होते हैं और आदिवासी सामाज में एकता और सहयोग का रुप माना जाता हैं. नृत्य गीत, कला, संस्कृति, पंरम्परा, एवं प्रकृ्रति उन्हें एकजुटता के सूत्र में बांधतें हैं.

श्रम जनित थकान कठोर से मुक्ति के लिए नृत्य व गीत

आदिवासियों का कहना है कि पूरा सप्ताह, महीना, वर्ष, या दिन-प्रतिदिन के श्रम से थकान उत्पन्न होता हैं, वह थकान पारंपरिक नृत्य कला व गीत, से क्षण भर में दूर हो जाता हैं. आदिवासी सामाज के लिए नृत्य एवं गीत खुशियों का इंद्रधनुष हैं, जो पूरे वातावरण को रंगो से भर देता है, इसलिए नृत्य उनके जीवन का एक महत्वपूर्ण हिस्सा बन गया हैं,

लेकिन नृत्य व गीत वे रोजाना नहीं करते. तब करते हैं जब कुछ महोत्सव होता हैं. जैसे-सरहुल, करम, बाहा पोरोब आदि. ये सभी आदिवासियी के प्रमुख पर्व हैं. ये पर्व उनके भव्य उत्सवों जैसे हंैं. सभी आदिवासी इन त्योहारांे को महान उत्साह और आनन्द के साथ मानाते हैं, नृत्य के साथ-साथ वो अपने मधुर स्वर में गीत गाते हैं, और साथ में मंादर एवं नगड़ा बजाया जाता हैं, जहां हर औरत-मर्द कलाकार हैं

आदिवासी सामाज में नृत्य और गीत सभी औरत-मर्द व उम्र के लोग करते हैं और एक तरह से सभी कलाकार होते हैं, जो नृत्य भी करता हैं, गीत भी गाता हैं और बाकी लोग मंादर या नगड़ा को गीत के साथ-साथ मिल कर बजाते हैं, और मंादर के साथ और-मर्द एवं सभी उम्र के लोग ताल से ताल मिलाकर नृत्य उत्साह के साथ करते हैं, मंच धरती बन जाती हैं

आदिवासियों का कहना हैं, कि जब वह नृत्य एवं गीत करते हैं, तब धरती खिल कर उत्साह से मंच बन जाती हैं, अर्थात आदिवासी सामाज में कभी नृत्य के लिए मंच बनाने एवं सजाने की जरुरत नहीं होती, क्योंकि उसके लिए तो धरती ही खुला मंच बन जाती हैं, यहां पर आदिवासी नृत्य व कला गैर - आदिवासी नृत्य-कला से भिन्न हो जाती हैं, क्योंकि गैर-आदिवासी नृत्य के लिए मंच की जरुरत पड़ती हैं,

डोमकच

आदिवासी नृत्य के अनेक प्रकार हैं जिसमें से एक है डोमकच. यह बेहद लोकप्रिय नृत्य हैं. यह नृत्य एक लम्बी कतार बना कर एक दूसरे का हाथ पकड़ कर और दंाया पैर व हाथ को आगे बढाते किया जाता है. साथ ही दाया हाथ को आगे-पीछे झुमाते हैं, इसी तरह नृत्य करते-करते आगे बढ़ते जाते है और साथ में गीत भी गाते हैं. यह नृत्य नाचने के बहुत सारा प्रकार हैं, पर सामान्यतः इस नृत्य में सदरी बोली के गीतों का प्रयोग होता हैं.

बदलता रूप

इस नृत्य में दिनों दिन परिवर्तन होता जा रहा है और डर है कि यह खूबसूरत नृत्य अपना असली रुप न खो दे. इन नृत्य गीतों में दिनांे-दिन बहुत तेजी से परिवर्तन हो रहा हैं, आदिवासी सामाज की नयी पीढ़ी के लोग अपनी परंम्परा को भूलते जा रहे है और परेशानी यह कि समझाने पर भी वो नहीे समझ पा रहे हैं. अब लोगों को मंादर एवं नगड़ा और खुद के गीत पंसद नहीे आते. उसे मंादर, नगड़ा एवं खुद का गाया हुआ गीत से नृत्य करने में मंजा नहीे आता, इसलिए वे अपनी प्रक्रति से जुड़े चीजों को नजरअन्दज करते जा रहे है. वे नृत्य करना तो चाहते हैं.

पर अफसोस कि वे मंादर, नगड़ा से नहीे, बल्कि अब उसे बाजा, साउंड, एवं नये-नये गीतों और नृत्य भी तरह-तरह के स्टेप के साथ नृत्य करना चाहते हैं, इससे उसकी अपनी मौलिकता नष्ट हो रही है.

आदिवासी अपनी परंपरागत नृत्य विधा को जिस तेजी से खोते जा रहे हैं, इससे यह खतरा उत्पन्न हो गया है कि कहीें वे लुप्त न हो जायें. इतने बदल न जायें कि पहचान में न आये. आदिवासियों को इतनी रफ्तार से अपनी परंम्परा को लुप्त होने से रोकना चाहिए. इसके लिए सभी युवाओं को एकता के साथ अपनी परंम्परा को बचा कर रखना होगा. हमें इस बात को नहीे भूलना चाहिए कि हमारे नृत्य, गीत, हमारी परंम्परा ही हमारी पहचान हैं, और उसे खो कर हम अपनी पहचान ही खो देंगे.