घोंघा जिसे देखकर शहरी अभिजात्य वर्ग वितृष्णा से मुंह बिचकाते हैं, आदिवासी समाज का प्रिय खाद्य-पर्दाथ हैं. वह धरती का सबसे धीमी गति से चलने वाला जीव हैं. यह आदिवासी समाज में और खासकर ग्रामीण इलाकों में अत्यधिक प्रचलित हैं और यह बरसात के मौसम में खेत और तालाबो में मिलता हैं. जब खेत बरसात के कारण पानी से भर जाते हैं तो घोंघा अनायास दिखने लगता है.

घोंघा पानी और हल्की सूखा जमीन पर भी रहता हैं. इसका भोजन घास और पत्ते होते हैं. ये बरसात के मौसम में ही मिलते हंै. ग्रामीण इलाकांे की महिलाएं, लड़कियां और बच्चियां साथ मिलकर खेतों में घोंघा चुनने जाती हैं जिससे उनके एक दो वक्त की सब्जी हो जाती हैं और यह काम भी आंनद का एक अवसर बन जाता हैं. घोंघा को खेत से चुनकर लाने के बाद साफ पानी में रख दिया जाता हैं, जिससे वह अपने अंदर की सारी मिटटी बाहर निकाल देता हैं. उसके बाद अगले दिन अच्छी तरह धो कर उसे उबाला जाता हैं और सूई की मदद से बाहर निकाल कर फिर धो लेते हैं. फिर जैसे अन्य सब्जी बनती है, उसे भी बनाया जाता हैं.

घोंघा में विटामिन-ए की मात्रा पाई जाती हैं जो मानव के लिए लाभदायक होता हैं. यह पोषक तत्त्व बच्चे के मस्तिष्क के विकास और याददाश्त को बढ़ाने में मददगार होता हैं. मानव के शरीर के ब्लड प्रेशर ओर हृदय की धड़कन को सामान्य बनाने में भी यह मदद करता है और यह हमारी आंखों के लिए भी लाभदायक होता हैं.

दरअसल, घोंघा के प्रति गैर आदिवासी समाज की वितृष्णा उनकी असहिष्णुता का परिचायक हैं. आम भारतीय का यह स्वभाव सा बन गया हैं. कि वह दूसरों की भाषा, संस्कृति, खानपान आदि को अपनी भाषा, संस्कृति, खानपान से हीन समझे. यही बात हम घोंघा के संदर्भ में भी कह सकते हैं. वरना खाने के लिए तो पूरी दुनिया केकडा, फतिंगा, कुत्ता, यहां तक कि साँप के सर को काट कर हटा देते हैं और पका कर खा जाते हैं.