जैसे सूख गई दामोदर, सुवर्णरेखा

जैसे आसमान में बिला गई सुगंधित हवाएं

जैसे चूर-चूर हो गये मजबूत पहाड़

जैसे छंटते-कटते चले गए जंगल

हम भी जा रहे हैं

हम जा रहे हैं जैसे चले गये भालु, हाथी और बाध

जैसे चली गइ घरों में फुदकती गौरैये

जैसे गायब हो गये मेढक

जैसे खो गई सब की सब तितलियां..

यह वंदना टेटे की पिछली कविता संग्रह ‘कोनजोगा’ की अंतिम कविता की चंद पंक्तियां है. नितांत व्यक्तिगत अनुभूतियां जो वंदना को पहले ‘नारी’वादी बनाती है, वही सामाजिक यथार्थ से बार-बार मुठभेड़ करते उसे ‘समाज’वादी बना देती है. अपनी युवावस्था से ही एक एक्टिविस्ट की तरह काम करने वाली वंदना जब यह कविता लिखती है तो उदासी और घनीभूत हो जाती है…रूई के फाये की तरह आकाश से उतरते और जमीनी यथार्थ से टकरा कर बर्फ जैसी सख्त हो जाने वाली कविताएं जिस पर नियति की तरह खुदी पंक्तियां.

हां, हम जा रहे हैं

जैसे चले गये गोंदली, मड़ुआ और गोड़ा धान

जैसे गुम हो गये चुआं, डाड़ी और झरने

जैसे रेंगते हुए जाने कहां चले गए

डुगडुगिया और धामिन सांप

हम जा रहे हैं..

लेकिन साथी, यदि यही नियति है तो हम सबको नियति के खिलाफ संघर्ष करना होगा..हम संघर्ष कर रहे हैं..