आदिवासी समाज सदियों से गैर आदिवासी समाज के साथ रहता आया है. बावजूद इसके अंग्रेजों के झारखंड में प्रवेश के पहले उनकी एक अलग दुनियां थी जिसे हम एक समानांजर दुनिया कह सकते हैं. लेकिन आजादी के बाद आदिवासी भी भारतीय लोकतंत्र का हिस्सा है और गैर आदिवासियों के साथ उनका मिलना जुलना बढ़ा है. बावजूद इसके आदिवासियों और गैर-आदिवासियों के जीवन दृ़िष्ट के फर्क को आज हम कुछ ठोस उदाहरणों से समझेगें.

आदिवासी समाज की दिनचर्या एंव परिस्थिति कैसे पल-पल कटती हैं, इसकी सभी लोग कल्पना भी नहीं कर सकते. उन्हें निरंतर गैर-आदिवासी समाज के लोगों की घृणा झेलनी पड़ती है, जिसकी वजह से उनका जीवन तनाव ग्रस्त हो गया है. वे एक किस्म के संकोच से घिरे रहते हैं. और वजह मूल रूप से यह कि गैर आदिवासी समाज के लोग अक्सर उन्हें नीचा दिखा कर उन्हें जीवन में आगे बढने से पहले ही नीचे गिरा देते है.

कई गैर-आदिवासी समाज के लोग आदिवासियों को हमेशा यह महसूस कराने की कोशिश करते रहते हैं, जैसे कि आदिवासी होना कोई अपराध या पाप हो, पिछड़ेपन की निशानी हो. एक तरफ उनकी संस्कृति, परम्परा, भाषा, खान-पान, रंग-रुप, सधारण वस्त्र, एंव सधारण जीवन और प्रक्ति की पूजा, हर चीज को गैर-आदिवासी समाज के लोगों ने मजाक का विषय बना दिया है़,

समान्य रुप से देखा जाए तो गैर-आदिवासियों का जीवन धर्म पर टिका हैं, बस अपने चारों तरफ राम-राम का नारा एंव झण्डा लगाते फिरते हैं, और सुबह-शाम भक्ति में डूबे रहने का ढ़ोग रचते हैं और हर जगह मंदिर स्थापित करने में लगे रहते हैं. पहले तो लोग मंदिर एक पवित्र स्थान पर ही स्थापित करते थे, अब किसी भी स्थान पर मंदिर बना देते हैं.

परन्तु गौर से इस दृश्य को देखा जाए तो गैर-आदिवासी समाज के लोग मंदिर बना कर या तो जमीन हड़पना या फिर रोजाना का मुद्रा़/मुनाफा कमाने का एक जरिया बना लेते हैं. कुछ लोग तो दूसरे के श्रम के शोषण पर ही टिके रहते हैं, वे बस कहीं न कहीं से धंधा या दलाली कर मुनाफा कमाना चाहते हैं.

दूसरी तरफ आदिवासी समाज के लोग, जो शुरु से प्रकृति के पूजक रहे हैं, उनकी पूरी जीवन शैली, संस्कृति, भाषा, परम्परा, पूजा पद्धति, सभी गैर-आदिवासियो बिलकुल भिन्न हैं. किसी आदिवासी गांव में मंदिर नही होता क्योंकि उनका मंदिर तो प्रकृति है. आदिवासी समाज को श्रम आधारित समाज कहा जाता हैं, यहां लोगो को कल की चिन्ता नहीं बल्कि आज की होती हैं, किसी तरह कठिन श्रम कर जैसे-मजदूरी, किसानी एंव रिक्शा चला कर, अपने जीवन को किसी तरह चलते हैं. इसी कारण यह भी देखा जाता हैं. कि आदिवासी समाज के युवा श्रम करके भी वह आर्थिक हैसियत नहीं प्राप्त कर पाते जो गैर आदिवासी अपने छल-प्रपंच से सहज ही प्राप्त कर लेते हैं.

एक नजर उस स्कूल कोचिंग एंव कालेज कैम्पस कि ओर देखा जाए, जहां पर गैर-आदिवासी समाज के बुरे व्यवहार के कारण आदिवासी समाज के लड़कियां एंव लड़के खुद को गरीब और नीचा समझ रहे है. इसकी वजह है गैर-आदिवासी लड़कियां एंव लड़के जो खुद को कुछ ज्यादा ही हाई-फाई और श्रेष्ठ दिखाते हैं और उनकी बातों में आदिवासी समाज के लिए कडवाहट भरी होती हैं. उनमें इतनी अकड़ शायद इसलिए आती है क्योंकि उसका रहन-सहन थोड़ा हाई-फाई होता है. उन्हें कभी किसी चीज कि कमी नहीं होती.

दूसरी तरफ आदिवासी लड़कियां एवं लड़कों को गरीबी के हालात केे साथ जीना पड़ता हैं. उसका रहन-सहन एकदम साधरण होता हैं. और इस वजह से वे अक्सर हीन भावना के शिकार हो जाते हैं.

इस हीन भावना से मुक्ति तभी संभव है जब हम अपनी परंपरा, संस्कृति, भाषा, रीती रिवाज व श्रम पर टिके अपने साधारण जीवन को गर्व के साथ देखें और उसका पालन करें. जरूरत के हिसाब से उनमें बदलाव भी लायें, लेकिन वह बदलाव ऐसा न हो की मूल की पहचान ही न रह जाये. त्रासद यही है कि अपने हीन भावना से छुटकारा पाने के लिए आदिवासी युवा उन्हीं लोगों की नकल करने लगते हैं जो हर वक्त उन्हें सांस्कृतिक रूप से पिछड़ा समझते हैं.