आदिवासियों के हाथ से जमीन धीरे-धीरे निकलती जा रही है. जीवन यापन के लिए उन्हें दिहाड़ी पर खटना पड़ता है या कल कारखानों में काम करना पड़ता है. लेकिन चूंकि वह तकनीकि रूप से दक्ष और पढ़ा लिखा नहीं, इसलिए औद्योगिक क्षेत्र में भी उसे बहुत ही निम्न कोटि का काम करना पड़ता है जिसमें मजदूरी बेहद कम और परिश्रम बहुत ज्यादा होती है. किसी भी औद्योगिक प्रक्षेत्र में चले जाईये, सबसे कठिन काम आदिवासी मजदूर करता नजर आयेगा. कहीं वह पत्थरकट्टा मजदूर है, कहीं खलासी. स्टील सेक्टर हो, कोल खदान या माईनिंग का क्षेत्र हो, हर जगह धूल धूसित जो मजदूर आपको दिखेगा, वह आदिवासी होगा. अपनी जमीन खो कर वह मजदूर बन रहा है और सबसे कम मजदूरी प्राप्त कर रहा है. वह भी अमानुष परिस्थितियों में. कहीं वह भूमिगत सुरंग में काम कर रहा है, कही वह भूमिगत खदानों में. खेती का काम उसके लिए कठिन जरूर था, लेकिन कम से कम उसके लिए प्रकृति के खुले प्रांगण में काम करने का अवसर तो था, जहां उसे शुद्ध हवा मानी मिलता था. उसके लिए सबसे ज्यादा तकलीफदेह बात यह कि वह अब तक आजादी से जीने का अभ्यस्त रहा है, लेकिन दिहाड़ी पर कल कारखानों या कहीं भी खटने का अर्थ अपनी आजादी खोना है.

उदाहरण के लिए खेतों में काम करना भी आसान काम नहीं, पर आप अपनी मर्जी से काम कर सकते हंै. किसी तरह का कोई दबाव नहीं है कि इतना काम एक घंटा में करना है या आज ही खत्म कर डालना है. यदि काम के बीच थक गये तो आप आराम कर ले सकते हैं. लेकिन यदि आप किसी कारखाना में काम करते हैं, दिहाड़़ी पर किसी के यहां खटते हैं तो आठ दस घंटे के लिए आप उसके गुलाम हो जाते हैं. आपसे काम के उन घंटों में जितने काम की अपेक्षा की जाती है, उसे आपको पूरा करना है. यदि काम करते आप थकान का अनुभव करते हैं, तो आप सुस्ता नहीं सकते. न काम को अगले दिन के लिए टाल सकते हैं. अगर ऐसा किया तो आपकी डांट, फटकार, प्रताड़ना और काम से छुट्टी भी हो जा सकती है. आपको समय का पाबंद हाना होगा. कहा जा सकता है कि अपने काम के प्रति ईमानदारी जरूरी है. लेकिन उस हिसाब से मजदूरी भी तो हो. आज की तारीख में तमाम तरह के स्थायी प्रकृति के काम भी ठेका मजदूर के रूप में ही कराया जाता है. किसी तरह का श्रम कानून नहीं रह गया. कारखानादार या मालिक मजदूरों से जानवर की तरह काम लेता है और कम से कम पारिश्रमिक देता है जो इतना ही होता है जिससे आप अगले दिन काम करने के लिए जिंदा रह सकें.

खेती के काम और कारखानों में काम का एक बड़ा अंतर यह भी है कि खेती के काम से जो सुख संतोष मिलता है, वह कारखानों के नीरस काम में नहीं. खेती अब अलाभकारी हो चली है. सिंचित जमीन का रकबा घटता जा रहा है. भीषण प्रदूषण के कारण कभी अनावृष्टि तो कभी अतिवृष्टि. बावजूद इसके खेतों में काम का अपना मजा है. वहां हम खेत जातते हैं. धान लगाते हैं, धान को बढ़ते देखते हैं, बालियों में दाना भरते और उन्हें धीरे-धीरे पकते देखते हैं. और जब अपनी मेहनत का फसल काट कर घर लाते हैं तो उस आनंद का मुकाबला कारखानों के काम में हो ही नहीं सकता. कारखाना में हम पीस रेटेड मजदूर बन कर रह जाते हैं. मान लीजिये, हम किसी कपड़ा कारखाना में काम कर रहे हैं. तो, वहां हम कोई एक कपड़ा पूरा नहीं बनाते. कारखाना में अगर कपड़ा सिलाई हो रहा हैं, तो कटिंग करके एक व्यक्ति देगा, एक तरफ से उसे एक कारीगर सिलाई करेगा और दूसरा व्यक्ति उसी कपड़े के दूसरी ओर सिलेगा, कोई काज बनायेगा. कोई बटन लगायेगा. इसी तरह थोड़ा - थोड़ा करके अलग अलग कारीगर एक कमीज तैयार करेगा. इस तरह कमीज बनाने में सृजन का कोई सुख नहीं. बस एक उबाउ काम आपके जिम्मे पड़ता है जिसे आपको लगातार करते रहना है. और इस उबाउ काम के लिए भी जितना काम होता है, उतनी मजदूरी नहीं मिलती.

आदिवासी समाज के गरीब से गरीब परिवार को घर का सुख था. मिट्टी का ही सही, एक घर, बाड़ी, आंगन, अखड़ा, लेकिन औद्योगीकरण ने उससे उसका घर छीन लिया. विस्थापित बसिस्तयां हो या फिर किसी शहर में अवस्थित कारखाना से जुड़ी झोपड़पट्टी, वे प्रकृति के खुले प्रांगण में खेते से लगे किसी ईमली पेड़ व बांस के झुरमुठों से घिरे मिट्टी के घरौंदों जैसे घर-गांव का मुकाबला नहीं कर सकती. अपने घर से बेधर हुआ हर प्रवासी मजदूर इस पीड़ा को हर वक्त महसूस करता है. विकास के वर्तमान माडल ने आदिवासी समाज को पहले से ज्यादा निर्धन और लाचार बनाया है. आदिवासियों में बढ़ती नशाखोरी की एक प्रमुख वजह यह भी बन गयी है.