भारत में आज भी ऐसे लेखक मौजूद हैं, जो बर्टोल्ड ब्रेख्त के नाटक ‘गैलेलियो’ के एक पात्र के एक डायलॉग को अपने लेखकीय साहस और स्वतंत्रता के लिए एक कसौटी मानते हैं। नाटक का पात्र का संवाद है- ‘दयनीय हैं ऐसे समाज, जिन्हें शूरवीरों की जरूरत पड़ती है।’ यानी, किसी व्यवस्था में जान हथेली पर रखकर कोई रचना करता है, तो उस रचनाकर्मी के साहस की प्रशंसा की जा सकती है, लेकिन उस व्यवस्था को किसी अर्थ में एक स्वस्थ या स्वच्छ व्यवस्था नहीं कहा जा सकता!

तो क्या स्वाधीनता का अर्थ एक रचनाकर्मी के लिए कोई ऐसी सुविधा नहीं, जिसके लिए उसे दूसरों पर निर्भर करना पड़े? निर्मल वर्मा, अज्ञेय, रेणु, यू.आर. अनंतमूर्ति के लेखन कहते हैं - ‘नहीं’। एक रचनाकर्मी के लिए स्वाधीनता ऐसी सुविधा नहीं, जिसके लिए उसे दूसरों पर निर्भर करना पड़े। स्वाधीनता हर लेखक की अंतश्चेतना का अनिवार्य अंग होती है। परिस्थितियां जैसी भी हों, शासन-सत्ता कोई भी हो, इतिहास जिस भी दौर से गुजर रहा हो, अपने रचनाकर्म के लिए अंततः उसे अपनी इसी अंतश्चेतना के प्रति उत्तरदायी रहना पड़ता है। यदि वह इससे डिगता है तो दूसरों को दोष नहीं दे सकता, यदि अडिग रहता है तो कोई बहादुरी का काम नहीं करता, सिर्फ अपना कर्तव्य पूरा करता है।

यानी लेखक खुद यह कर्तव्य अपने ऊपर ओढ़ता है, कोई बाहरी सत्ता उस पर यह आरोपित नहीं करती। समाज के अन्य कार्यकलापों के बीच जब कोई लेखक रचनाकर्म करने और सिर्फ रचनाकर्म करने में ‘अपने होने’का अर्थ पाता है, तो महज इसके कारण वह अन्य नागरिकों की अपेक्षा अधिक स्वाधीनता पाने का अधिकारी नहीं हो जाता, बल्कि उसे उतनी ही स्वाधीनता के ईंधन से अपना चूल्हा जलाना पड़ेगा, जो इतिहास के उस क्षण दूसरे लोगों को उपलब्ध है।

कोई लेखक अपनी कृति में ‘कलाकार’ दिखता हो या ‘कारीगर’, दोनों अवस्थाओं में गुणात्मक भेद भले हो, प्रयोजनात्मक (फंक्शनल) भेद नहीं होता। दोनों की स्वाधीनता उसी अर्थ द्वारा निर्धारित होती है, जिसे वह अपने कर्म, अपनी क्रिया, अपनी भूमिका या अपनी रचना (अपनी कला) के निजी अर्थ में रूपांतरित करता है।

किसी भी रचनाकार/रचनाकर्मी/लेखक की स्वतंत्रता कोई नकारात्मक मूल्य नहीं है, जैसी राजनीतिक-सांस्कृतिक या शैक्षणिक सत्ता के पदों पर विराजमान कुछ प्रभु रचनाकर्मियों के लिए है, जो हमेशा अन्य के विरोध या समर्थन से अर्जित की जाती है, अपने आत्म के प्रति दायित्व पूरा करने में नहीं। ऐसे रचनाकर्मी अपनी स्वतंत्रता के साथ भी सहज रिश्ता बनाते नहीं दिखते। इसीलिए जब कोई संकट पड़ता है, तो वे अपनी स्वतंत्रता को त्यागने के लिए गहरे आत्मसंघर्ष से नहीं गुजरते। जब इस तरह का कोई संकट न हो, तब तो उनके ही ‘शब्द’ उनके लिए क्रय-विक्रय के साधन आसानी से बन जाते हैं - जिन शब्दों से इतिहास या उपन्यास या युगबोध का साहित्य लिखा जा सकता है, उनसे किसी राजनेता का मैनिफेस्टो या किसी प्रशासक का भाषण या जल्दी से बिकनेवाला लोकप्रिय ‘बैस्ट सेलर’का उत्पादन किया जाता है।

सलमान रुश्दी अपने ‘विवादास्पद’ लेकिन ‘बेस्ट सेलर’लेखन को किस तरह देखते हैं, समझते हैं या मानते हैं?

वर्ष 2012 में भारत के बौद्धिक जमातों या रचनाकर्मी समुदायों को उनके आमने-सामने होकर सुनने का मौका नहीं मिला। लेकिन राजस्थान साहित्यिक उत्सव में उनके बहाने एक सवाल आ गया और उत्सव खत्म होने के अंतिम क्षण तक वहां जमा रहा। सवाल यह था कि हमारे स्वतंत्र देश की आजाद व्यवस्था को देखते हुए, उसमें जीते हुए क्या हम निर्द्वंद्व भाव से कह सकते हैं कि हमारा कोई राजनेता, कोई प्रशासक, कोई सेवक या अधिकारीया दल-संगठन, गुलामी के वक्त के भारत के किसी मनीषी/राजनेता/प्रशासक से अधिक स्वाधीन चेतना और वैचारिक विवेक से मंडित है?

2012 में यह साफ नजर आया कि इन सत्ता-संपन्न प्रभुओं में कई लोग सलमान रुशदी के भारत आने का विरोध करने के लिए अपनी सहूलियत और नफा के मुताबिक सड़क पर उतरे या ज्ञापनों के जरिये अपना चेहरा दिखाया।कुछ लोगों ने अपनी स्वतंत्रता को सहूलियत के कवच से सुरक्षित रखते हुए रुश्दी के आने का समर्थन किया।

देश के आम पाठक हमारे विद्वानों की यह बात मानेंगे कि लेखक जीवन की अराजकता के बीच भी उसकी अर्थवत्ता ढूंढ़ने का प्रयास करता है। वह अपनी कथ्यात्मक लय में असंबद्ध चीजों के बीच जीवन की गूढ़ रहस्यमयता उजागर करता है। समय को बीतता देख सके, इसके लिए लेखक एक ‘स्थिर बिंदु’ पर टिके रहता है। पाठक के लिए भी यह जरूरी होता है कि समय को बीतता देख सकने के लिए वह एक ‘स्थिर बिंदु’ पर टिके रहे।

देश और समाज के लिए ऐसे स्थिर बिंदु की तालश एवं पहचान में ‘इतिहास’ मदद कर सकता है। बहती नदियों के उद्गम पर अटल हिमालय जैसा स्थिर बिंदु! रामकृष्ण परमहंस कहा करते थे - ‘नदियां बहती हैं, क्योंकि हिमालय अटल रहता है।’ यह सत्य ‘कला’ पर भी लागू होता है। उसके बिना लोक में किसी व्यक्ति, समूह या वर्ग विशेष का तात्कालिक जीवन कितना भी विकसित और रंगीन नजर आये, सामुदायिक-सामाजिक जीवन बेरंग, खंडित और अतीत की स्मृतियों की बाढ़ में सुखाड़जैसा उजाड़ ही दिखेगा।

हमारे कुछ युवा आधुनिक लेखक जो कुछ लिख-कह रहे हैं, उसमें लाख छिपाने के बावजूद दिखता है कि वे इतिहास से आक्रांत हैं। वे अपने समाज, प्रदेश या देश के इतिहास से प्रेम करते नजर आते हैं, लेकिन वह प्रेम ऐसा नहीं जो इतिहास को समय के पाटों के बीच निर्बाध हो कर बहने दे। इसके प्रति खुद उन्हें और पाठकों को सजग और सावधान रहना चाहिए। क्योंकि सत्ता-राजनीति पर काबिज हमारे प्रभुओं को सुनिए तो यह समझ में आयेगा कि उनको ‘इतिहास’से इतना प्रेम नहीं है कि वे उसे समय के पाटों के बीच निर्बाध हो कर बहने दें। वे इतिहास को अत्यचारी या अच्छा इसलिए कहते हैं कि वे इतिहास को अपने किसी वर्ग, जाति या धर्म विशेष के स्वार्थों के अनुकूल तोड़-मरोड़ सकें।