कोलकाता की रहने वाली दो बहनों का उनके माता पिता ने उपनयन संस्कार किया, यानि, जनेउ का संस्कार किया. इस तरह उन्होंने लैंगिक भेदभाव को मिटाने की कोशिश की. परंपरागत रूप से हिंदू समाज में बेटों का ही जनेउ किया जाता है. लड़कियों के पिता भास्कर बनर्जी कोलकाता हाईकोर्ट में वकालत करते हैं और मां अनुपूर्वा पढ़ी लिखी और अपने स्वयं का व्यवसाय चलाने वाली कर्मठ महिला है. बड़ी बेटी अताशी 17 वर्ष की है और बारहवीं कक्षा में पढ़ती है, जबकि दूसरी बेटी बोरिस्ता 13 वर्ष की है और आठवीं कक्षा में पढ़ती है. उनका एक छह वर्ष का बेटा भी है.

जब घर में बेटे के जनेउ की बात होने लगी तो माता पिता को लगा कि बेटे से बड़ी दो बेटियां होते हुए वे कैसे बेटे का जनेउ कर देंगे. उनको लगा कि बेटी होने के कारण उनको इस अधिकार से क्यों वंचित किया जाये. इसलिए उन्होंने दोनों बेटियों का जनेउ संस्कार 15 अप्रैल को कर डाला. नाते रिश्तेदारों तथा मित्रों की उपस्थिति में मंत्र पढ़े गये. भास्कर बनर्जी के इस काम को उनके पिता का भी समर्थन प्राप्त था. उनका नाम भगवती प्रसाद बनर्जी है जो पेशे से एक जज हैं. दीवाली और काली पूजा के समय पटाखे जलाने की परंपरा का विरोध कर जज साहब ने ज्यादा नाम कमाया.

दोनों लड़कियां भी जनेउ धारण कर प्रसंन्न हैं और उन्हें लग रहा है कि उन्हें नई शक्ति मिल गयी है. समाज के एक तबके के लोगों ने भास्कर बनर्जी की वाहवाही की तो एक वर्ग ऐसा भी है जिनको यह आशंका है कि लैंगिक समानता के लिए उठाया गया यह सांकेतिक कदम औरतों को कितनी शक्ति प्रदान करेगा. फिर भी रुढ़ीवादी भारतीय समाज में भास्कर बनर्जी ने लैंगिक समानता के लिए जो कदम उठाया है, वह प्रसंसनीय है.

भारत के पितृसत्तात्मक समाज में बेटा जन्मना श्रेष्ठ माना जाता है. प्रारंभ से ही परिवार से ही बेटा बेटी के इस अंतर को कई तरह से प्रकट करने में संकोच भी नहीं किया जाता है. यदि कोई लैंगिक समानता लाने के लिए बेटे के बराबर बेटी का भी सारे संस्कार कर दे, तो क्या यह अंतर मिट जायेगा. लड़की के जनेउ पहन लेने से या शादी के दिन दुल्हे की तरह घोड़ी पर चढ़ जाने से बराबरी नहीं आयगी. इसलिए औरत को औरत बन कर ही अपने अधिकारों की लड़ाई लड़नी है और शक्तिशाली बनना है.

इस संदर्भ में दूसरी महत्वपूर्ण बात यह है कि जनेउ जाति सूचक चिन्ह है. हिंदू समाज में उंची जाती के पुरुष ही जनेउ धारण करते हैं. भास्कर बनर्जी उंची जाति के होने के कारण अपने बेटे के साथ अपनी बेटियों का भी जनंउ संस्कार कर लैंगिक समानता लाने की कोशिश की लेकिन अपनी बेटियों को भी जाति भेदभाव का एक अस्त्र थमा दिया. उन्होंने लैंगिक समानता की तो बात की, लेकिन साथ ही भारतीय समाज के लिए कोढ़ बन चुके जाति व्यवस्था को मजबूत ही किया. काबिले तारीफ बात तब होती जब अपनी बेटियों का उपनयन संस्कार करने के बजाय वे अपने बेटे का भी जनेउ नहीं करते.