यह सार्वदेशिक हकीकत है कि आज भी औरत होने के नाते समाज में औरत बलात्कार का शिकार होती है। यह विद्वतजन कहते हैं और आम जन भी मानते हैं। औरत गर्भधारण करती है। यह उसकी प्राकृतिक विशेषता है। बलात्कार का हर परिणाम औरत को यह दंश देता है कि समाज में वह अपनी प्राकृतिक खासियत का खामियाजा भुगतने को अभिशप्त है। औरत की खासियत उसकी खामी बना दी जाती है।

हो सकता है कि इस मान्यता पर समाज एतराज करे कि वह औरत की जनन क्षमता को उसकी खामी मानता है। हालांकि वह इस सवाल का स्पष्ट जवाब नहीं देता कि देश में में इतने बड़े पैमाने पर औरतें बलात्कार की शिकार क्यों होती हैं? बलात्कार की घटनाएं क्यों बढ़ रही हैं?

यह सही है कि समाज में आम तौर पर सब पुरुष बलात्कारी नहीं। अगर ऐसा होता, तो बलात्कार ‘सिर्फ’ अपराध नहीं, बल्कि बीमारी कहलाता। बलात्कार की जो घटनाएं प्रकाश में आती हैं, उनसे सिर्फ यही निष्कर्ष उभरता है कि बलात्कार की घटनाएं कुछ अपराधियों की करतूत है।

अगर बलात्कार बीमारी नहीं, बल्कि अपराध है तो यह सवाल उठना चाहिए कि आखिर बलात्कारी को अपराध करने का बल कहां से प्राप्त होता है? लेकिन यह सवाल नहीं उठता, क्योंकि इसके जवाब जैसा एक तथ्य पहले से सामने है कि हमारे देश के पुरुष समाज औरत की जनन क्षमता को उसकी खामी भले न माने, उसकी कमजोरी अवश्य मानता है।

भारतीय समाज में हर क्षेत्र में औरत अपनी प्रतिभा और क्षमता प्रमाणित कर रही है, राजनीति हो या रोजगार, शिक्षा हो या सेवा, औरतें तेजी से आगे बढ़ रही हैं, तेजी से आगे बढ़ना चाहती हैं। इसके बावजूद वे छेड़खानी, बदसलूकी एवं बलात्कार की शिकार होती हैं - इसका अर्थ क्या है, इस मान्यता के सिवा कि औरत की प्राकृतिक विशेषता उसकी कमजोरी मानी जा रही है?

माना, चंद अपराधी पुरुष औरतों का शिकार करते हैं लेकिन उनको ऐसा करने का दुस्साहस क्या उक्त ‘मान्यता’ से नहीं मिलता?

आम औरत में असुरक्षा का भय होना यह जाहिर करता है आज भी ‘औरत सेक्स’ को कमजोर और ‘पुरुष सेक्स’ को ताकतवर माना जाता है। इस कारण आज भी पुरुष होने के नाते पुरुष मजबूत दिखता है और औरत औरत होने के नाते कमजोर।

भारत में अव्वल तो बलात्कार की घटनाएं मुश्किल से प्रकाश में आती हैं। अगर कोई हादसा प्रकाश में आता है भी तो आमतौर पर चार-पांच तरह की प्रतिक्रियाएं प्रकाशित होती हैंः

(1) कुछ लोग यह कहकर तटस्थ हो जाते हैं कि यह तो निरंकुश कामेच्छाओं का क्रूरतम प्रदर्शन है।

(2) सरकार बलात्कार को भी “अपराध’ की एक आम ‘घटना’ की तरह चोरी-डकैती, अपहरण, हिंसा आदि के ‘क्राइम लिस्ट’ में शामिल करती है। वह बलात्कार को आम अपराधों की सूची में डालने के बावजूद बलात्कारों की संख्या में वृद्धि को विधि-व्यवस्था की नाकामी का प्रमाण नहीं मानती। उल्टे वह सफाई देती है कि फलाने प्रदेश की तुलना ढिकाने प्रदेश में बलात्कार की घटनाएं कम होती हैं। सरकार बलात्कार के आंकड़े और उनका तुलनात्मक विवरण पेश करती है। लेकिन अपराध नियंत्रण से जुड़ी नाकामी छिपाने के लिए वह जो तर्क और तथ्य पेश करती है, उससे यह साफ दिखता है कि बलात्कार के आंकड़े सरकार की आंखों के लिए ‘चश्मा’ नहीं, बल्कि आंखों पर की ‘पट्टी’ है।

(3) सत्तारूढ़ दल हो या विपक्षी दल अक्सर एक जैसे स्वर में बलात्कार की निंदा करते हुए बयान देते हैं - ‘इसमें पॉलिटिक्स को मिक्स नहीं कीजिए।’ फिर बलात्कृत औरत की जाति, वर्ग और आर्थिक-सामाजिक हैसियत के मुताबिक दोनों पक्ष अपनी-अपनी भूमिका तय करते हैं। सत्ता पक्ष सफाई देता है कि प्रदेश में बलात्कार की घटनाओं का ग्राफ राष्ट्रीय औसत या फिर किन-किन राज्यों से कितना नीचे है। विपक्ष अपनी राजनीतिक जरूरत के मुताबिक अनशन-प्रदर्शन करता है।

(4) अधिसंख्य कांडों पर, प्रकाश में आने के बाद भी, पर्दा पड़ा रहता है। उनके लिए ‘हाय-तौबा’ नहीं मचती। जो कांड कोशिश के बावजूद दब-छिप नहीं पाते, उन पर हल्ला-हंगामा होता है और अक्सर बलात्कार एक घटना - एक्सीडेंट - में तब्दील हो जाता है। यह हल्ला-हंगामे का नतीजा होता है और मकसद भी। तत्कालीन उत्तेजना, अल्पकालीन हंगामा और दीर्घकालिक कार्रवाई के बीच यह बुनियादी तथ्य पिस-दब जाता है कि बलात्कार सुनियोजित था। और यह तथ्य बहस के एजेंडे से ही गायब हो जाता है कि लगभग हर बलात्कार सुनियोजित होता है।

(5) बलात्कार की किसी भी घटना के प्रति मीडिया बेहद संवेदनशील होता है। वह खुद को समाज का दर्पण जो कहता है। इसलिए जो कुछ समाज में घटता है, उसे सामने लाना अपना फर्ज समझता है। बलात्कार की घटनाएं भी प्रमुखता से छापी जाती हैं। प्रामाणिकता और विश्वसनीयता के लिए तस्वीरें भी छपती हैं। तस्वीरों से खबरों का वजन भी बढ़ता है। इसके लिए मीडिया क्या करता है? अन्य आपराधिक घटनाओं की खबरों में दोषी व्यक्ति की तस्वीर छापकर बताया जाता है कि देखो, यह है अपराधी। बलात्कार की खबर में मीडिया उल्टा करता है। वह बलात्कार की शिकार औरत की तस्वीर छापता है। यह बताने के लिए कि देखो, यह उस औरत की तस्वीर है, जिसका बलात्कार हुआ! उस तस्वीर में उसके चेहरे और आंखों में पट्टीनुमा कालिख लगा दी जाती है और खबर में औरत का कल्पित नाम दिया जाता है। कोशिश होती है कि तस्वीर में सशरीर उपस्थित औरत बलात्कार की शिकार के रूप में न पहचान ली जाये। यह मीडिया के दायित्वबोध का भी प्रमाण हो।

लेकिन कुल मिलाकर यह ऐसा कार्य-व्यापार लगता है, जिसमें दूसरे की मजबूरी का प्रदर्शन अपना मकसद बन जाता है। अक्सर शिकायत इस रूप में फूटती है कि मीडिया में भी बलात्कार की किसी वास्तविक घटना को पेश करने की कोशिश ‘बाक्स आफिस हिट’ हिंदी फिल्मों में पेश की जानेवाली रेप सीन जैसी दिखती है।

उक्त तमाम प्रतिक्रियाओं का ठोस निष्कर्ष यह निकलता है कि बलात्कार ‘सत्ता’ की अभिव्यक्ति है। राजनीतिक सत्ता, आर्थिक सत्ता, सामाजिक-जातिगत सत्ता और सूचना की सत्ता की तरह ‘सेक्स’ भी सत्ता की अभिव्यक्ति (मेनिफेस्टेशन) का क्रियात्मक रूप है। अन्य सत्ताओं में औरत भी भागीदार हो सकती है, लेकिन सेक्स सत्ता पर पुरुष का वर्चस्व रहेगा, क्योंकि सेक्स का निर्धारण जन्मगत होता है और समाज ने अपने जीवन-चिंतन में विशेषता को कमजोरी साबित कर ‘औरत सेक्स’ को कमजोर और ‘पुरुष सेक्स’ को ताकतवर बना दिया।

ऐसा समाज बलात्कार को अन्य अपराधों की श्रेणी में रखकर भी औरत की ‘यौनशुचिता’ को ऐसा ‘धन’ बना देता है, जो एक बार लुटने के बाद वापस नहीं आता है। और तो और, समाज का यह चिंतन पहले से फैसला कर देता है कि बलात्कार में लुटनेवाली औरत अपनी यौनशुचिता का धन पुनः अर्जित करने लायक नहीं।

बलात्कार की बढ़ती घटनाएं बताती हैं कि उक्त चिंतन पुरुष के ‘सेक्स धन’ को ‘कालाधन’ जैसा विकराल और निरंकुश बना रहा है।