जब हम किसी दिन को विशेष रूप से मनाते है तो इसके पीछे कई कारण होते हैं. उसमें से एक वजह होती है इनके महत्व को बढ़ाना और उनके प्रति समाज में जागरूकता लाना. 9 अगस्त ‘विश्व आदिवासी दिवस’ के रूप में पूरी दुनिया में मनाया जाता हैं. इस दिवस को मनाने का उद्देश्य यह है कि आदिवासी के अधिकारों को संजोये रखना है, जिसमे जल, जंगल, जमीन शामिल है. साथ ही उनकी सामाजिक, आर्थिक और न्यायायिक सुरक्षा बनाये रखने के लिए इस दिवस को मनाना जरूरी है.

आदिवासी शुरू से ही अपनी संस्कृति, अपने प्रकृतिवाद से जुड़े रहे हैं, लेकिन भारत का एक बहुसंख्यक वर्ग अपने धर्म को आदिवासियों पर जबरन थोपने पर उतारू है. राजनीतिक पार्टियां आदिवासियों को केवल अपना वोट बैंक समझती हैं और बहुमत बढ़ाने के लिए तरह-तरह के वादे करती हैं, लेकिन जब बात आती है जल-जंगल-जमीन और अधिकारों की लड़ाई की, तब वे इन समुदायों को अकेले छोड़ देते हैं. आदिवासियों के इस लड़ाई का हिस्सा बनने से बचते हैं और कई बार आदिवासियों को विकास विरोधी तक बता देते हैं.

अधिकतर फासीवाद और पूंजीवाद से जुड़े लोग खुले तौर पर आदिवासी विरोधी गतिविधियों का समर्थन करते नजर आते हैं. जब कोई पूंजीवादी राष्ट्र तरक्की और विकास का नाम देकर प्राकृतिक संसाधनों का अत्याधिक दोहन करता हैं, पर्यावरण संतुलन के लिए बनाए नियम कायदों की परवाह नहीं करता, तब अपना कोई भी स्वार्थ सिद्ध किए बगैर एकमात्र आदिवासी ही होते हैं जो पूंजीवाद के उपभोगवादिता जीवनशैली और व्यवस्था के खिलाफ लड़ते हैं. एक आत्मनिर्भर समुदाय पूंजीवाद के दौर में पिछड़ रहा है. आज जब पूरा विश्व ग्लोबल वार्मिंग जैसी वैश्विक समस्याओं से जूझ रहा है तो आदिवासी जीवन दर्शन ही हमारे सामने एकमात्र विकल्प है जो पर्यावरण और इंसानों के बीच सामंजस्य स्थापित कर सहजीविता और सह अस्तित्व को बनाए रखता है.

भारत के प्रमुख आदिवासी समुदायों में मुंडा, बोडो, भील, उरांव, लोहार, परधान, खासी, सहरिया, गोंड, खड़िया, हो, संथाल, मीणा, बिरहोर, पारधी, आंध, टोकरे कोली, मल्हार कोली, टाकणकार इत्यादि है. इतने समुदाय होने के बाद भी सरकार आदिवासियों को अपना धर्म कोड देने से इंकार कर दे रही है. कारण क्या है? आदिवासियों को हिंदू या फिर ईसाई बनाना.

झारखंड आदिवासियों के नाम से जाना जाता है. फिर क्यों उन्हें अपना हक के लिए बार बार रैली निकला पढ़ रहा है? आज हम स्कूल कॉलेजों में या अन्य फॉर्म भरते हैं, सभी धर्म का नाम लिखा रहता है, लेकिन आदिवासियों का सरना धर्म नही लिखा रहता, जिसके कारण बहुत से लोग ईसाई या हिन्दू या फिर अन्य में टिक कर देते हैं.

इन सभी बातों को ध्यानपूर्वक रखते हुवे आदिवासियों को विश्व आदिवासी दिवस में भारी आबादी में एक होकर पर्व के रूप में मनाना चाहिए. अपने आदिवासी समाज को आगे बढ़ने का प्रयास करना बहुत जरूरी हो गया है.

भारत मे आदिवासियों की एक बड़ी आबादी रहती है. दक्षिण अफ्रीका के बाद शायद सबसे बड़ी आबादी भारत में ही. झारखंड में 26.2 फीसदीः ,पश्चिम बंगाल में 5.49 फीसदी, बिहार में 0.99 फीसदी, उत्तर प्रदेश 0.07 फीसदी, अरूणाचल में 68.08 फीसदी, त्रिपुरा में 31.08 फीसदी, मिजोरम में 94.04 फीसदी, मणिपुर में 35.01 फीसदी, सिक्किम में 33.08 फीसदी, मेघालय 86.01 फीसदी, नगालैंड में 86.05 फीसदी, असम में 12.04 फीसदी.

विश्व में 37 करोड़ आदिवासी समुदाय के लोग रहते है, जो अपनी सभ्यता और रीति-रिवाजों को अपने सीने से लगा कर सदैव चलते रहा है. हड़प्पा संस्कृति और मोहनजोदड़ो की खुदाई में पाये गये बर्तन में आज भी आदिवासी समुदाय के लोग खाना खाते हैं. भारत मे आदिवासी का संवैधानिक नाम अनुसूचित जनजाति है. 2011 के जनगणना के अनुसार जिसकी जनसंख्या 10.45 करोड है़, जो भारत की जनसंख्या का 8.6 फीसदी है.

इन सभी बातों को ध्यान में रखते हुवे आदिवासियों को जागरूक हो जाना चाहिए, क्योंकि अगर आज वो आदिवासी दिवस का महत्व को समझ नही पाए और अपने हक के लिए नही लड़े तो उसका वजूद खतरे में पड़ जायेगा.