बिहार की बड़ी आबादी आज भूमि के सवाल पर उद्वेलित है.आजादी के इतने वर्षों बाद भी! लेकिन सरकारी उदासीनता, कानून व अदालती प्रक्रिया के दुष्चक्र के बावजूद/या कारण भूमिहीन किसान अपने अधिकारों के लिए एकजुट हो रहे हैं. शांतिमय संघर्ष के रास्ते पर चलते और कानूनी लडाई लड़ते हुए लगातार सत्ता प्रतिष्ठान के दरवाजे पर दस्तक दे रहे हैं. खास कर पश्चिम चंपारण और गया जिलों में लगातार आंदोलन की स्थिति बनी हुई है, जिसकी गूँज ऊपर तक पहुँचने लगी है. इसी क्रम में विगत 26 फरवरी को लौरिया (पश्चिम चंपारण) में एक महती सत्याग्रह सभा में कोई चार हजार पर्चाधारी किसानों ने आगामी 10 जून को सरकार द्वारा सीलिंग एक्ट के तहत फाजिल घोषित एक भूखंड पर दखल के लिए सत्याग्रह करने का ऐलान किया.

गौरतलब है कि राज्य में अब भी लगभग 17 लाख ऐसे पर्चाधारी भूमिहीन हैं, जिनको जमीन पर कब्जा नहीं मिल सका है. यहाँ तक कि भूदान में मिली जमीन में से लगभग आधे का ही वितरण भूमिहीनों के बीच हो सका है; और उनमें से भी पचास फीसदी जमीन का दाखिल ख़ारिज नहीं हो सका है.

आखिर सरकार के स्तर पर भूमि सुधार के कार्यक्रम के प्रति अपेक्षित गंभीरता क्यों नहीं है?जमीन का असमान वितरण; या कहें जमीन के बड़े हिस्से पर थोड़े लोगों का नाजायज कब्जा,यहां की एक बहुत बड़ी समस्या बन गयी है. जबकि कोई भी सरकार इसे ठान ले, तो इस समस्या का निदान संभव है. बस इच्छा शक्ति चाहिए, कानून की पेचीदगी और दुरूह अदालती प्रक्रिया का भी हल निकल सकता है. सरकार के पास इसके लिए पैसा भी है और जमीनी स्तर की मशीनरी भी. आखिर गरीबों-किसानों की बेह्तरी के नाम पर वर्षों से अकूत पैसा खर्च किया जा रहा है. प्रखंड और अंचल कार्यालय जनहित की विभिन्न सरकारी योजनाओं के क्रियान्वयन में लगे हैं. आवास योजनाएं हैं, सिंचाई की योजनाएं हैं. मगर जो सबसे पहली योजना होनी चाहिए- सबों के पास बसने भर जमीन हो- वही उपेक्षित है. भूमिहीनों को कई बार पर्चा दिया भी गया है. मगर उस पर कब्जा भी मिल सके, इसके लिए कोई गंभीर कार्यक्रम नहीं चला! चला भी, तो कानून, अदालत और नौकरशाही की उदासीनता के कारण सफल नहीं हो सका. हद तो यह कि आजादी के इतने सालों बाद भूदान में मिली जमीन पर भी, कागज पर वितरण हो जाने के बावजूद, भूमिहीनों को कब्जा नहीं दिलाया जा सका है. और इसके लिए आंदोलन और संघर्ष की जरूरत पड़ती है! आखिर इतने सालों से यह जरूरी काम क्यों रुका हुआ है? जिन लोगों को अब तक जमीन का पर्चा वर्तमान या पूर्व सरकारों ने दिया, सरकार चाहे तो उन्हें एक समय सीमा तय कर जमीन पर यथाधीघ्र वास्तविक हक दिला सकती है. व्यक्ति का चयन तो पर्चा देते समय हो चुका, अब उसे पूरा करना है. क्या इसके लिए सरकारी मशीनरी पर्याप्त नहीं है, या वह अक्षम है? आखिर अंचल कार्यालय क्यों हैं? ग्रामीण थाने क्या सिर्फ ग्रामीणों को डराने के लिए हैं? प्रशासन ठान ले, तो इसमें कितना वक्त लगेगा, बससरकार की इच्छाशक्ति चाहिए.

इसी प्रकार वास की जमीन का मामला है. कितनी संख्या में ऐसे लोग होंगे, कितना खर्च लगेगा? अगर सरकार चाहे तो कुछ समय के लिए दूसरी योजनाओं को रोक कर भी प्राथमिकता बना कर इसे पूरा कर सकती है. गरीबों पर और गरीबी हटाने के नाम पर काफी खर्च किया जा रहा है. पर जो सबसे प्राथमिक कार्य थे, वही नहीं किया जा रहा! और विडंबना यह कि जो लोग सरकार के इस अधूरे कार्य को पूरा करना चाहते हैं, उन्हें जेल भेजा जाता है, व्यवस्था विरोधी कहा जाता है!

आखिर सरकारें यह बुनियादी काम करने से क्यों डरती हैं? सरकारें यानी सत्ताधारी राजनैतिक दल या तो गरीबों के पक्षधर होंगे या अमीरों के. भूमिहीनों के पक्षधर होंगे या भूधारियों के. आवास और रोजगार देने से भूधारियों के हितों को चोट नहीं पहुंचती. मगर जमीन तो केंद्र में है. ताकत और aदूसरों को असहाय बनाने के लिए. यहीं पर सरकार और तंत्र की पक्षधरता स्पष्ट होती है. अब तक के अनुभवों के आधार पर तो यही लगता है कि वह सामंतों के हितों के खिलाफ नहीं जा सकती; और इसी कारण भूमि के सवाल पर वह, चाहे जिसकी भी सरकार हो, भूमिहीनों के साथ खड़ी नहीं हो सकती. अपने ही दिये पर्चे यानी दायित्व यानी वादे को मुकम्मल नहीं कर सकती. या तो सरकार तक बड़े भूधारियों की मजबूत पहुँच है; या फिर सरकार के लिए इस समस्या का कोई महत्त्व नहीं है! वह आये दिन पूंजीपतियों को उद्योग लगाने के लिए आमंत्रित करती है, जमीन देने का आश्वासन देती है, जमीन देती भी है, मगर हजारों-लाखों गरीबों को सामंतों के रहमोकरम पर छोड़ देती है. कोर्ट भी मामले को लंबे समय तक टाले रखते हैं और इस तरह से भूमिहीन येनकेन प्रकारेण भूमिहीन बने रहते हैं. यहां तक कि जिस जमीन पर उनके घर हैं, उस पर भी उनका हक नहीं होता और उन्हें हमेशा उजड़ने का डर बना रहता है. अब तक की सारी सरकारें गरीब-विमुख पक्षधरता के साथ चलती रही हैं. ऐसे में प्रखंड स्तरीय सरकारी कार्यालय, उनके कर्मचारी भी इस दिशा में कोई काम नहीं करते. वे सभी या तो छोटे व मध्यम किसानों की जमीन छीनने के औजार बनते हैं या फिर बड़े भूपतियों के अवैध कब्जे में पड़ी जमीन बचाने के. यहां तक कि जंगल की जमीन पर दशकों से बसे लोगों को भी प्रशासन के इसी रवैये का शिकार होना पड़ता है, जो वास्तविक हकदारों को जमीन पर अधिकार नहीं देना चाहता. गया जिले में इसके खिलाफ लोग लगातार संघर्ष भी कर रहे हैं; और इस संघर्ष में जंगल विभाग, यानी सरकार/प्रशासन उनके खिलाफ खड़े नजर आते हैं. सरकारों की गरीब विरोधी नीतियों से- जो भूमिपतियों की पक्षधरता से आगे जाकर यहां रुकती है- अनुप्राणित पूरी सरकारी मशीनरी गरीबों के खिलाफ अपना आचरण दिखाती है. भले नीचे स्तर के कर्मचारी खुद गरीबी के मार खाये हों, पर सत्ता और प्रशासन के चरित्र से वे भी मुक्त नहीं हैं.

प्रसंगवश, झारखण्ड की स्थिति थोड़ी भिन्न है. यहां भूमिहीनता उतनी बड़ी समस्या नहीं है, विकास के नाम पर या कारण विस्थापन की समस्या, जमीन से उजड़ने की समस्या गंभीर होती जा रही है. नतीजतन जमीन बचाने की लडाई चल रही है. और झारखण्ड में भी सरकार इस संघर्ष के खिलाफ दूसरे छोर पर नजर आती है.

बिहार में (झारखण्ड में भी) पहले छात्राओं को सायकिल मिली. फिर पंचायती निकायों में 50 प्रतिशत आरक्षण. पिछले वर्ष बिहार सरकार की सभी प्रकार की नौकरियों में महिलाओं को 35 प्रतिशत आरक्षण और शिक्षकों में 50 प्रतिशत आरक्षण की नीति स्वीकृत हुई. इन सबों ने मिल कर एक नये माहौल का सृजन किया है. अब शराबबंदी के रूप में एक और सकारात्मक पहल हुई है. अगले कुछ समय में हर घर आंगन में इसका परिणाम दिखने लगेगा. महिलाओं को इसका लाभ बड़े पैमाने पर मिलेगा. क्या वर्तमान सरकार कुछ और ऐसे ही क्रांतिकारी फैसले नहीं ले सकती. अगर सभी भूमिहीनों को जमीन देने का और उसे लागू भी करने का फैसला ले और वह सारी जमीन या वासगीत का पर्चा औरतों के नाम हो, तो यह स्त्री अधिकारों को आगे बढ़ाने की दिशा में एक और ठोस कदम होगा. स्त्री के साथ वंचितों को न्याय देने का भी. क्या इससे सत्ताधारी दल को इसका लाभ नहीं मिलेगा? जाहिर है, जनता का समर्थन तो बहुत मिलेगा. मगर पक्षधरता का क्या होगा? वोट तो चाहिए, पर वे अपने संस्कारों का क्या करें? जहां मौका मिलता है बड़े भूधारकों के पक्ष में खड़े हो जाते हैं. मगर स्त्रियों के पक्ष में महत्वपूर्ण फैसले लेने के बाद अब भूमि के स्वामित्व के संबंध में भी बड़े फैसले लेने का यह बिल्कुल सटीक समय है. वे सिद्ध करें कि उनकी अपनी पक्षधरता गरीबों के साथ है.

अंत में : एक अच्छी खबर यह है कि बीते 9 मार्च को बिहार के मुख्यमंत्री नीतीश कुमार और चंपारण के साथी पंकज जी के बीच चंपारण के पर्चाधारियों की समस्याओं पर बातचीत हुई. पंकजजी के मुताबिक मुख्यमंत्री गंभीर थे. उन्होंने सम्बद्ध अधिकारियों को इस सन्दर्भ में पूरे मामले पर विचार कर त्वरित कार्रवाई का निर्देश भी दिया है. अब देखना यह है कि उनके निर्देश पर कैसे और कब तक अमल होता है. अंतिम विकल्प तो आंदोलन और सत्याग्रह ही है.